धर्मपालन के आदर्श प्रतिमान हैं मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम
श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट का आदर्श वाक्य है "रामो विग्रहवान् धर्म:" (भगवान श्रीराम धर्म के मूर्तरूप हैं)।
वाल्मीकि रामायण के अरण्य कांड का पूरा श्लोक इस प्रकार है "रामो विग्रहवान् धर्म:, साधु: सत्य पराक्रम:, राजा सर्वस्य लोकस्य, देवानामीव वासव:''. यह श्लोक तब का है जब रावण मारीच से माता सीता के अपहरण में सहायता मांगता है. सहायता से पूर्व मारीच रावण को बुरा भला भी कहता है. इस श्लोक में मारीच श्रीराम की वैशिष्ट्य यानी विशेषताएं बयां करता है.
भारतीय संस्कृति, सभ्यता, विरासत और आध्यात्मिकता में धर्म का क्या
अर्थ है? यह समझने के लिए यह निति वाक्य सबसे
सर्वश्रेष्ठ है|
श्रीराम के बारे में श्रीअरविन्द लिखते है -
रामायण पर श्रीअरविन्द
लिखते हैं-
रामायण ने भारतीय
कल्पनाशक्ति के लिये इसके चरित्रसंबंधी उच्चतम और कोमलतम मानवीय आदर्शों
को मूर्त रूप प्रदान किया,
बल, साहस, सज्जनता, पवित्रता, विश्वासपात्रता और आत्मोत्सर्ग
का परिचय इसे अत्यंत मनोरम और सुसमंजस रूपों में कराया और उन रूपों को इस
प्रकार रंग दिया कि वे भावावेग और सौंदर्य-भावना को आकृष्ट कर सकें, नैतिक नियमों को
उसने एक ओर तो समस्त घृणाजनक कठोरता के और दूसरी ओर निरी सामान्यता के
आवरण से मुक्त कर दिया; और जीवन की
साधारण वस्तुओं को भी, पति-पत्नी, मां-बेटे और भाई-भाई
के पारस्परिक प्रेम को, राजा और नेता के
कर्तव्य और प्रजा
तथा अनुयायी को
राजभक्ति एवं निष्ठा को, महान् व्यक्तियों
की महत्ता और सरल लोगों के सच्चे स्वरूप और मूल्य को एक प्रकार की उच्च दिव्यता
प्रदान की, अपने आदर्श रंगों की आभा से नैतिक
वस्तुओं को रंगकर एक अधिक आंतरात्मिक अर्थ का सौंदर्य प्रदान कर दिया। भारत की
सांस्कृतिक मानस को ढालने में वाल्मीकि की कृति ने प्रायः एक अपरिमेय शक्ति से युक्त
साधन के रूप में कार्य किया है : इसने राम और सीता जैसे या फिर हनुमान, लक्ष्मण और भरत
सरीखे पात्रों के रूप में अपने नैतिक आदर्शों की सजीव मानव- प्रतिमूर्तियों
को उसके सम्मुख चित्रित किया है ताकि वह उनसे प्रेम कर सके और उनका अनुसरण कर सके; राम और सीता को
इतनी दिव्यता के साथ तथा मूल सत्य की ऐसी अभिव्यक्ति के साथ चित्रित किया गया है कि वे
स्थायी भक्ति और पूजा के पात्र बन गये ; हमारे राष्ट्रीय
चरित्र के सर्वोत्तम और मधुरतम तत्वों में से बहुतों का गठन इसी ने किया है और इसी ने
उसके अंदर उन सूक्ष्मतर और उत्कृष्ट पर सुदृढ़ आत्मिक स्वरों को और अधिक सुकुमार
मानव-प्रकृति को उद्बुद्ध तथा प्रतिष्ठित किया है जो सद्गुण और आचार- व्यवहार के
प्रचलित बाह्य अंगों से कहीं अधिक मूल्यवान वस्तुएं है। CWSA खण्ड 20 पृष्ठ 392-93
वेदों की भूमि पर शासक नहीं बल्कि धर्म ही संप्रभु रहा है। यह बात डॉ. राधा कृष्णन ने पं. नेहरू के उद्देश्य
प्रस्ताव के उत्तर में कही थी। उन्होंने 20 जनवरी 1947 को संविधान सभा की बहस
में धर्म की अवधारणा पर कहा, "जब उत्तर से कुछ व्यापारी
दक्षिण की ओर गए, तो दक्कन के राजकुमारों में से एक ने सवाल पूछा। "आपका राजा कौन है?"
जवाब था ,
"हममें से कुछ सभाओं द्वारा शासित होते हैं, कुछ राजाओं द्वारा।"
केसीड देसो गणाधिना केसीड राजाधीना।
पाणिनि, मेगस्थनीज और कौटिल्य प्राचीन भारत के गणराज्यों का उल्लेख करते हैं। महान
बुद्ध कपिलवस्तु गणराज्य के थे। लोगों की संप्रभुता के बारे में बहुत कुछ कहा गया
है। हमने माना है कि अंतिम संप्रभुता नैतिक कानून, मानवता की अंतरात्मा पर
निर्भर है। प्रजा और राजा दोनों उसके अधीन हैं। धर्म, राजाओं का राजा है।
धर्मं क्षात्रस्य क्षत्रम्।
यह जनता और स्वयं शासक दोनों का शासक है। यह कानून की संप्रभुता है जिसका हमने
दावा किया है।"
यहाँ सुप्रीम कोर्ट के निति
वाक्य को समझना भी आवशयक है । भारत के सर्वोच्च न्यायालय का नीति वाक्य है- यतो धर्मस्ततो जयः , जिसे महाभारत से लिया गया है। इसका अर्थ है जहां धर्म है वहां विजय है। भारतीय संस्कृति, दर्शन, इतिहास और शास्त्रों में धर्म शब्द का अर्थ और आशय पश्चिम की सेकुलर अवधारणा से पूर्णतः भिन्न है। धर्म शब्द को लेकर अक्सर वाद-विवाद बनाया जाता है। इसका कारण यह होता है कि धर्म शब्द की समझ एवं इसका सही अर्थ समझने में कमी रह गई। इस कारण भारतीय संस्कृति एवं शास्त्रों के भी दूरी बन जाती है।
भारत रत्न प्रोफेसर पीवी काणे
ने धर्मशास्त्र का इतिहास में स्पष्ट रूप से बताया है कि धर्म शब्द का अनुवाद पृथ्वी पर बोली जाने वाली
किसी भी भाषा में संभव नहीं है। इसका कारण वह रेखांकित करते हैं कि इस ग्रह पर
किसी भी सभ्यता ने आध्यात्मिकता को जीवन के केंद्र में रखकर जीने का प्रयोग या
साहस नहीं किया है। प्रोफेसर काणे बॉम्बे
हाई कोर्ट के जज, सीनियर एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट,
राज्यसभा सदस्य थे।
सम्राट अशोक के समय धर्म शब्द को यूनान में eusebeia शब्द से समझ कर इसका अर्थ समझा जो कि नैतिक आचरण तक सीमित था। इस कारण पश्चिम कभी भी भारत में प्रयुक्त शब्द धर्म को सही अर्थ में कभी भी नहीं समझ सका। आधुनिक काल में यही गलती जारी रही और आज धर्म शब्द के लिए पश्चिम में religion शब्द का प्रयोग किया है जो कि अपूर्ण है क्योंकि religion शब्द पंथ एवं सम्प्रदाय तक ही सीमित है। 2500 वर्षों से चली आ रही त्रुटि लगातार जारी है, पहले eusebeia शब्द के माध्यम से और आज religion शब्द के माध्यम से। दोनों ही पश्चिमी शब्दों ने धर्म शब्द को ढक दिया, जिससे धर्म शब्द का सही अर्थ और आशय न तो पश्चिम वाले समझ पाये और ना ही भारत की आधुनिक शिक्षा धर्म का समग्रता से चिंतन दे पाई। धर्म शब्द के दुरूपयोग का दूसरा उदाहरण है secular का हिन्दी में धर्मनिरपेक्ष शब्द का उपयोग। यह जानते हुए भी कि संविधान में Secular के लिए पंथ निरपेक्ष शब्द का प्रयोग किया गया है। चार पुरूषार्थी में से एवं पुरूषार्थ धर्म को बताया है। भारत को समझने के लिए तीन शब्दों का ज्ञान जरूरी है कर्मन, ब्रह्म एवं धर्म। भारत में धर्म से आशय है व्यक्ति का देश , काल और परिस्तिथि के अनुसार व्यवहार जिसका आधार आध्यत्मिकता हो। अतः धर्म eusebeia
और religion तक सिमित नहीं है ।
मूल संविधान में श्री राम जी का चित्र
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