भारत माता कौन है ?

 

भारत माता कौन है ?

प्रो  पुरुषोत्तम अग्रवाल   द्वारा लिखित पुस्तक  भारत माता कौन है” ? के प्रमोशन के लिए राजस्थान इंटरनेशनल सेंटर में  उनके  एक कार्यक्रम में भाग लेने का मौका मिला | इस विषय के साथ यह भी जोड़ दिया गया कि भारत माता का अर्थ आइडिया ऑफ इंडिया से लिया जा रहा है या यूं कहें कि आज की तारीख में - भारत क्या है? भारत से क्या अपेक्षा है ?भारत का क्या दायित्व है? या  विश्व पटल पर भारत का  क्या योगदान अपेक्षित है? इन्हीं प्रश्नों के साथ प्रोफेसर पुरुषोत्तम अग्रवाल  का उद्बोधन शुरू होता है| इसके साथ ही यह भी बताया जाता है कि उनके द्वारा रचित पुस्तक में  भारत माता के बारे में  जो लिखा गया है उसमें अधिकांश संदर्भ भारत के पंडित नेहरू की पुस्तकों और उनके साहित्य से लिए गए हैं| इस मुख्य बिंदु के अलावा भी उनके करीबन 2 घंटे के साथ सत्र  में कई विषयो  पर चर्चा हुई परंतु आज भारत माता पर चर्चा करेंगे |

डॉक्टर पुरुषोत्तम अग्रवाल के वक्तव्य से स्पष्ट हो गया कि उनके द्वारा यह पुस्तक  किस कारण से  लिखी गई है| कारण बताया गया  पंडित नेहरू को  भारत की संस्कृति ,सभ्यता और उसके अध्यात्म के विरुद्ध देखा जाता है| इस नैरेटिव  का खंडन करने के लिए पुस्तक का निर्माण किया गया है| यह पुस्तक मैंने नहीं पढी है परंतु उनके वक्तव्य सुनने के बाद यह स्पष्ट हो गया कि पुरुषोत्तम अग्रवाल भी एक विशेष प्रकार की  मानसिकता  को व्यक्त करते हैं कि भारत माता केवल एक ही प्रकार की हो सकती है जैसा की पंडित नेहरु के साहित्य में लिखा है |

 भारत की  आजादी के आंदोलन को  जब हम देखते हैं, तो उसमें  चार प्रकार के राष्ट्रवाद  देखने को मिलते हैं | दुसरे शब्दों में भारत माता शब्द एक है परंतु इसकी परिभाषा, आशय और व्याख्या में भिन्नता मिलती  है |

जहां पहला राष्ट्रवाद हमें उस भारत माता के रूप में मिलता है जहां श्रीअरविंद भारत राष्ट्र  को एक माता के रूप में देखते हैं और उसे जगत जननी के रूप में स्वीकार करते  करते हुए उसकी सेवा करना चाहते हैं| इसके बाद  बाल गंगाधर तिलक  का राष्ट्रवाद हमें देखने को मिलता है जहां भारत माता के आध्यात्मिक स्वरूप को स्वीकार किया गया है परंतु इसमें  संस्कृति ,सभ्यता, इतिहास, विरासत और धर्म को प्रमुखता दी गई है | इसके बाद हमें  एक अन्य  राष्ट्रवाद दिखता है जहां  अहिंसा और नैतिकता का बल दिया है जिसे हम गांधीजी का राष्ट्रवाद कह सकते हैं |

महत्वपूर्ण यह है  कि तिलक कहते हैं किस्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार  है और मैं इसे लेकर रहूंगाजहां पर वह अपने इस लक्ष्य प्राप्ति के लिए साधन की पवित्रता को नहीं लक्ष्य प्राप्ति को प्रमुखता देते हैं | जबकि गांधीजी के राष्ट्रवाद में  साधन और साध्य दोनों की नैतिकता  के मापदंड से गुजरना होता है| हम कह सकते हैं कि तिलक के अनुसार आजादी के लिए  अहिंसा का  मार्ग खुला था परंतु वक्त आने पर सशस्त्र क्रांति से भी उन्हें परहेज नहीं था|  इसके अलावा एक हमें  एक और प्रकार का राष्ट्रवाद मिलता है जहां पर तिलक और गांधी के  राष्ट्रवाद का मिश्रण है | जिसे हम पाश्चात्य राष्ट्रवाद भी कह सकते हैं| मिश्रित राष्ट्रवाद  तार्किक तो है परंतु आध्यात्मिक तत्व  के अभाव की प्राथमिकता स्पष्ट रूप से दिखती है साथ ही सेक्युलर है और धर्म से राष्ट्रवाद का जुड़ाव निषेध है | यह चौथा राष्ट्रवाद है जवाहर लाल नेहरु का |इस  प्रकार के राष्ट्रवाद की विशेषता यह है कि यह  एक वैज्ञानिक सोच को पैदा करता है, संकीर्णता को नकारता  करता है और विश्व की और  अपना मन और मस्तिष्क को खुला रखता है| इसमें प्रमुखता अंतरराष्ट्रीयता की होती है |  परंतु इसमें नुकसान की यह बात है कि  भारत जैसे देश में जहां पर धर्म और आध्यात्मिकता इसके कण-कण में बसा  है वहां  इस प्रकार  की सोच से आमजन  को अपने इतिहास , शास्त्रों से दूर ले  जाने पर इसकी स्वीकार्यता कमजोर बनी  रहती  है |

वर्ष 1909 में उत्तरपाड़ा के भाषण में श्रीअरविन्द ने स्पष्ट रूप से कहा था कि भारत की राष्ट्रीयता है उसकी आध्यमिकता। इस प्रकार श्रीअरविन्द के आध्यत्मिक राष्ट्रवाद की संकल्पना ही भारतीय राष्ट्रवाद है। इसी क्रम में श्रीअरविन्द बताते है कि हर राष्ट्र की एक सामूहिक आत्मा होती है, जो कि दिव्य विधान के अनुसार नियत कार्यों को सम्पादित करने के लिए आदेशित है। श्रीअरविन्द लिखते है कि राष्ट्रवाद, अन्तर्राष्ट्रवाद एक-दूसरे के विरोधी नहीं बल्कि पूरक है। क्योंकि अन्तर्राष्ट्रवाद में हर राष्ट्र अपनी अद्वितीयता से दूसरे को समृद्ध कर सकता है। परन्तु इसके लिए यह नितान्त आवश्यक है कि सर्वप्रथम हर राष्ट्र वह प्रवीणता प्राप्त करें जिसके लिए उसकी सामूहिक चेतना उन्नीलित होकर विश्व में अवतरित हो। विभिन्न राष्ट्रों की विशिष्ट चेतना के बारे में श्री अरविन्द लिखते है किभारत को आध्यात्मिकता, अमरिका को वाणिज्य ऊर्जा, इंग्लैण्ड को व्यवहारिक बौधिकता, फ्रांस को स्पष्ट तार्किकता, जर्मनी को मिमांसात्मक प्रवीणता, रूस को भावनात्मक प्रचण्डता आदि को मानव जाति की कल्याण, समृद्धि और प्रगति के लिए विकसित करने की आवश्यकता है। सार यह है कि धरती माता विभिन्न राष्ट्रों के रूप में स्वयं को उत्तरोतर अभिव्यक्त कर रही है।

अत: भारत माता जिसका आधार आध्यात्मिकता है  उसमें चौथे प्रकार के राष्ट्रवाद की  स्वीकार्यता है जहां  राष्ट्रवाद, अन्तर्राष्ट्रवाद एक-दूसरे के विरोधी नहीं बल्कि पूरक   हैं , साथ ही तिलक के राष्ट्रवाद का अंगीकार करते हुए दोनों का अतिक्रमण कर तीसरे प्रकार के राष्ट्रवाद के  समान प्रतीत तो होता है परन्तु सामान्य नैतिकता से  उच्तर नैतिकता  और नीति के नये आयामो  की आधारशीला पर स्थित पाया जता है |

आशा करता हूँ भारत माता को समझने में यह लेख आज के युवा  के लिए सहायक होगा कि   भारतीय  राष्ट्रवाद में आध्यात्मिकता से परहेज करना भारत बोध के अभाव की मुहर होगी | भारतीय संविधान के मूल कर्तव्यों में वन्दे मातरम  को नहीं जोड़ना ,भारतीय राष्ट्रवाद और भारत बोध की विक्षिप्त मानसिकता को दर्शाता है |

भारत माता की जय !

 

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