भारतीय मौलिक चिंतन पर यूनिफार्म सिविल कोड का निर्माण

यूनिफार्म सिविल कोड अर्थात् समान नागरिक संहिता पर आजकल पूरे देश में चर्चा चल रही है। यूनिफार्म सिविल कोड विषय पर चर्चा संविधान निर्माण के समय से ही चल रही है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि किसी भी राष्ट्र में यूनिफार्म सिविल कोड अथवा कॉमन सिविल कोड अथवा नैशनल सिविल कोड नहीं होना चाहिए या इसे किसी भी नाम से जाना जाए। इस चर्चा में मुख्य तत्व यह है कि भारत जैसे देश में यूनिफार्म सिविल कोड केन्द्र बिन्दू क्या होना चाहिए?

21वीं सदी में यूनिफार्म सिविल कोड का आधार महिलाओं के अधिकार, संवैधानिक नैतिकता, मानव अधिकारी, सेक्यूलरिज्म, जेण्डर समानता आदि मूल्यों और सिद्धांतों को सर्वोपरि रखकर चर्चा करनी होगी। परन्तु धर्म ग्रन्थों के अनुसार धार्मिक मान्यताओं, आस्थाओं को भी केन्द्र में रखा जाएगा। अतः भारत में यूनिफार्म सिविल कोड लागू करने के लिए मौलिक चिंतन की आवश्यकता है। भारत में हिन्दू समुदाय के लिए हिन्दू कोड के तहत सभी हिन्दुओं पर यह लागू होता है। गणतंत्र भारत में संसद और न्यायपालिका के कारण हिन्दू समुदाय की महिलाओं को पुरूष के बराबर हक एवं बिना भेदभाव के सिविल कोड जैसे विवाह, तलाक, बच्चा गोद लेना (दत्तक ग्रहण), भरण-पोषण, उत्तराधिकारी, संरक्षण, कस्टडी आदि विषय के अंतर्गत प्रावधान है।

आज सबसे आवश्यक एवं महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि क्या यूनिफार्म सिविल कोड के तहत अन्य धार्मिक समुदाय जैसे मुस्लिम, पारसी, ईसाई, यहूदी आदि पर यूनिफार्म सिविल कोड किस रूप में लागू होगा? क्योंकि यूनिफार्म सिविल कोड की आवश्यकता का मुख्य कारण है, अधिकांश पर्सनल  सिविल कोड के तहत महिलाओं को समानता के अधिकार से वंचित रखा गया है? क्या इसका अर्थ यह होगा कि धार्मिक मान्यताओं के कारण कभी भी भारतीय महिलाओं जोकि मुस्लिम, पारसी, ईसाई, यहूदी आदि समुदाय में रहती है। उन्हें बराबर का हक नहीं मिलेगा।

परन्तु इस तर्क में एक कमी है। वह कमी, शाहबानो केस में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस्लाम की धार्मिक मान्यताऐं एवं परम्पराओं के अध्ययन करने पर यह निष्कर्ष निकाला कि प्रचलित मान्यताऐं धर्मग्रन्थ में लिखी मौलिक उपदेशों से विपरीत मिली, इसी कारण भरण-पोषण को कुरान के मुताबिक बताया गया और भरण-पोषण से वंचित रखना धर्मग्रन्थ के विपरीत न होकर धर्म ग्रन्थ की व्याख्या के अनुरूप ही पाया गया। यही बात तीन तलाक में सामने आती है। मुस्लिम विवाह-विच्छेद अधिनियम 1939 के अंतर्गत मुस्लिम महिलाओं को तलाक के लिए कुछ आधार धारा 2 में अंकित किए गए है। यूनिफार्म सिविल कोड के अंतर्गत पुरूष के लिए भी तलाक के यही आधार लागू किये जाने चाहिए। इसी प्रकार व्यभिचार के आधार पर दोनों पुरूष और स्त्री को तलाक का आधार बनाना चाहिए। अतः भारत में यूनिफार्म सिविल कोड को लागू करते समय धर्मग्रन्थों की व्याख्या सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है। इसके लिए लॉ कमीशन ऑफ इंडिया को विभिन्न देशों में मुस्लिम पर्सनल लॉ तुलनात्मक अध्ययन किया जाना अपेक्षित है। एक आदर्श तलाकनामा बनाया जा सकता है, जोकि धर्मग्रन्थ के मौलिक तत्वों एवं संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों के समन्वय को दर्शाता हो।

तुलनात्मक अध्ययन इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि भारत में बेवजह यह प्रोपगण्डा फैलाया जा रहा है कि यूनिफार्म सिविल कोड नाम पर अल्पसंख्यक समुदाय पर बहुसंख्यक समुदाय का पर्सनल सिविल लॉ लागू करने की कोशिश की जा रही है, जोकि यूनिफार्म सिविल कोड की बहस को कमजोर बना रहा है।

इस्लामिक देशों के पर्सनल लॉ की तुलनात्मक अध्ययन पर यह तथ्य सामने आता है कि भारत में मुस्लिम पर्सनल लॉ में बदलाव किया जा सकता है। यह बदलाव कहीं भी इस्लामिक धर्मग्रन्थ में लिखी मौलिक मान्यताओं से टकराव नहीं करता। जैसे पाकिस्तान और बांग्लादेश में बहुविवाह करने पर पत्नी की सहमति एवं समुचित न्यायालय द्वारा अनुमति लिया जाना आवश्यक है। बांग्लादेश में विवाह के लिए पुरूष की उम्र 21 और स्त्री की उम्र 18 रखी गई है। साथ ही विवाह का पंजीकरण भी बांग्लादेश में कानूनन अनिवार्य है।

इसी प्रकार इण्डोनेशिया की सर्वोच्च न्यायालय में उत्तराधिकारी कानूनों की व्याख्या करते हुए कुरान की आयत संख्या 4रू176 में वाल्द की व्याख्या संतान से की गई है जिसमें लड़का और लड़की दोनों शामिल है। अतः जेण्डर समानता के लिए इण्डोनेशिया के कानून का अध्ययन किया जा सकता है।

अडॉप्शन या बच्चा गोद लेना कानून बनाने पर बड़ी चुनौती भारत में रहेगी। क्योंकि इस्लाम में अडॉप्शन को मान्यता नहीं दी गई है, परन्तु भारत में स्थानीय परम्पराओं, रिति-रिवाज के अनुसार ही दत्तक ग्रहण की अनुमति है। परन्तु भारत में किशोर न्याय (बालकों की देखरेख  और संरक्षण) अधिनियम, 2015 के तहत कोई भी भारतीय बच्चा गोद ले सकता है। इसमें धर्म के आधार पर किसी प्रकार का कोई प्रतिबंध नहीं लगाया गया है।यहां यह लिखना उल्लेखनीय है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरियत) अधिनियम 1937 एंग्लो रिलिजियस कानून की श्रेणी में आता है। जिसे पुनः परीक्षण की आवश्यकता है।

यूनिफार्म सिविल कोड में महिलाओं को समानता का अधिकार के आधार पर चर्चा आवश्यक है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि सभी धार्मिक समुदाय के लिए एक ही कानून हो इसका अर्थ यह है कि यूनिफार्म सिविल कोड में इस प्रकार के प्रावधान हो जिसमें महिलाओं के प्रति भेदभाव भी नहीं हो साथ ही महिलाओं को पुरूष के बराबर अधिकार मिले और इस प्रकार किसी भी धार्मिक ग्रन्थ की मौलिक सिद्धांतों के साथ किसी प्रकार को टकराव भी नहीं हो। यूनिफार्म सिविल कोड को बनाने में मौलिक चिंतन की आवश्कयता है। जिससे भारत पूरे विश्व के सामने एक आदर्श सभ्यता का उदाहरण रख सके। कि भारतीय संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकार सभी धर्म के लोगों के लिए है।

यूनिफार्म सिविल कोड के अंतर्गत चर्चा में महत्वपूर्ण पक्ष यूनिफार्मेटी अर्थात् समानता का अर्थ महिला एवं पुरूषों के बीच समानता होना चाहिए, न कि यह कि सभी धर्म एक ही प्रकार के आधार पर पर्सनल लॉ का पालन करें, क्योंकि विभिन्न धर्मों की उत्पत्ति का स्थान संस्कृति, सभ्यता, इतिहास और विरासत भिन्न रहा है। अतः यह विविधता नैसर्गिक रूप से उत्सव की तरह मनाई जा सकती है। यूनिफार्मेटी को 21वीं सदी में नई परिभाषा और नई दिशा देने का श्रेय भारत को लेना चाहिए। ऐसी विश्व को भारत से अपेक्षा है।

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