राष्ट्रीय शिक्षण की भूमिका --श्रीअरविंद

 



राष्ट्रीय शिक्षण की भूमिका -- श्रीअरविंद


(श्रीअरविंद ने 1910 में ‘कर्मयोगिन्’ नामक पत्र में यह लेख माला लिखी थी ।)

अंग्रेजी, जम्रन या अमरीकन विद्यालय या विश्वविद्यालय को कुछ थोड़े-से हेर-फेर के साथ अपना लेना और उस पर जरासा भारतीयता की ओप लगा देना ज्यादा आकर्षण रूप से सरल है और इसमें हम सोच-विचार या नये परीक्षण करने की आवश्यकता से बच जाते हैं।

     हमारे मन में इससे ज्यादा गहरी, महान् और सूक्ष्म चीज की खोज है। उसे रूप देने में चाहे जितनी कठिनाइयां आये, हम एक ऐसी शिक्षा चाहते हैं जो भारतीय आत्मा के अनुकूल हो। यहां की आवश्यकताओं, यहां के स्वभाव और यहां की संस्कृति के साथ मेल खाती हो। हम ऐसी चीज की खोज में नहीं है जो केवल हमारे भूतकाल की अनुकृति हो, बल्कि विकसनशील भारतीय आत्मा उसकी भावी आवश्यकताओं, उसके भावी आत्म-निर्माण की महानता और उसकी शाश्वत आत्मा के अनुरूप हो।हमें अपने मन में इस चीज को स्पष्ट कर लेना है और इसके लिये हमें मौलिक तत्वों तक उतरना और उन्हें बड़े अंश में कार्यान्वित करना शुरू करने से पहले उन्हें मजबूत बनाना है। अन्यथा, इससे आसान और कुछ नही है कि झूठी, परन्तु ऊपर से आकर्षक लगने वाली पुकार के उत्तर में या एक गलत आरंभ बिंदु से चलकर सच्चे रास्ते से भटककर ऐसी राहपर जा पड़ना जो हमें किसी लक्ष्य की ओर नहीं, रिक्तता और असफलता की ओर ले जाती है।

मानव जाति और उसकी आवश्यकताएं सब जगह एक सी हैं, सत्य और ज्ञान एक हैं और उनका कोई देश नहीं होता। शिक्षा भी सार्वभौम होनी चाहिये जिसमें कोई राष्ट्रीयता न हो, कोई सीमाएं न हों। उदाहरण के लिये, भौतिक विज्ञान के राष्ट्रीय शिक्षण का क्या अर्थ हो सकता है? क्या इसका यह मतलब है कि हमें आधुनिक सत्य और विज्ञान की आधुनिक शिक्षा-पद्धति को त्याग देना चाहिये क्योंकि यह यूरोप से आये हैं और हमें प्राचीन भारत के अपूर्ण विज्ञान की और लौट जाना चाहिये, हमें गैलिलियिं, न्यूटन और उनके बाद आने वालों को देश निकाला दे देना चाहिये और केवल वही पढ़ाना चाहिये जो भास्कर, आर्यभट्ट और वराहमिहिर जानते थे? या संस्कृत तथा अन्य जीवित भारतीय भाषाओं की पढ़ाई लैटिन तथा यूरोप की अन्य जीवित भाषाओं की पढ़ाई से किस प्रकार भिन्न होगी, तो क्या हमें फिर से नदिया की चटशाला पद्धति या अगर हम खोज सकें तो तक्षशिला और नालंदा की शिक्षा पद्धतियों को अपनाना होगा? अधिक से अधिक यह मांग की जा सकती है कि हमारे देश के भूतकाल का कुछ अधिक अध्ययन हो, माध्यम के रूप में अंग्रेजी के स्थान पर स्थानीय भाषाएं आ जायं और अंग्रेजी एक गौण भाषा के रूप में रह जाय। लेकिन इन परिवर्तनों की उपादेयता पर भी विवाद हो सकता है। आखिर हम बीसवीं शती में रहते है और चंद्रगुप्त या अकबर के भारत को पुनरूज्जीवित नहीं कर सकते। हमें सत्य और ज्ञान की दौड़ में आगे रहना चाहिये और अपने-आपको वास्तविक परिस्थितियों में जीने के योग्य बनाना चाहिये। इसलिये हमारी शिक्षा को अपने रूप और तत्व की दृष्टि से अद्यतन और जीवन तथा भावना में आधुनिक होना चाहिये।

ये सब आपत्तियां तभी संगत हो सकती है जब वे किसी ऐसी राष्ट्रीय शिक्षा पद्धति के विरूद्ध हो जो इसे अंधकारमय अवनतिका साधने बनाये, जो उन अतीत रूपों की ओर ले जाय जो एक बार हमारी संस्कृति के सवीव ढांचे थे परन्तु अब मर चुके हैं या मरणासन्न हैं। लेकिन हमारा यह विचार या प्रयास नहीं है। राष्ट्रीय शिक्षा की मांग का जीता-जागता भाव यह नहीं चाहता कि हम भास्कराचार्य के गणित और ज्योतिष की ओर वापिस जाएं या नालंदा की शिक्षा पद्धति अपनाएं। यह उसी तरह है जैसे स्वदेशी की भावना रेल या मोटर परिवहन की जगह रथ या बैलगाड़ी की ओर वापिस नहीं ले जाती। निश्चय ही चारों ओर बहुत सी प्रतिगामी भावुकता फैली हुई है और असली समस्या को खटाई में डालने के लिये सामान्य बुद्धि और तर्क बुद्धि पर विचित्र अत्याचार हुए हैं और व्यर्थ करने वाली सनके पैदा हुई हैं। यह परिणामहीन, मनमौजी प्रवृत्तियां सारी चीज को एक झूठ रंग दे देती है। हमें भावना के साथ, जीवित-जाग्रत् और प्राणवान सत्ता के साथ काम है। इसमें प्राचीन और अर्वाचीन का प्रश्न नहीं है। यहां चुनाव है बाहर से लायी गयी सभ्यता और भारतीय मन और स्वभाव की अधिक महान् संभावनाओं के बीच, वर्तमान और अतीत, बीच नहीं, वर्तमान और भविष्य के बीच। पांचवी शताब्दी की ओर वापिस जाने की नहीं, आने वाली शताब्दियों के उपक्रम की मांग है। आत्मा या भारत की शक्ति की मांग वर्तमान कृत्रिम मिथ्यात्व के उलटने की नहीं, उससे छूटकर अधिक महान्, सहजात आंतरिक संभाव्यताओं और क्षमताओं की ओर आगे बढ़ने की है।

सबसे पहले राष्ट्रीय शिक्षा के विरूद्ध तर्क-वितर्क इस निर्जीव धारणा से आरंभ होता है कि किसी विषय का सीख लेना, इस या उस प्रकार की जानकारी प्रापत कर लेना ही समस्त कार्य या केन्द्रीय वस्तु है। लेकिन विभिनन प्रकार की जानकारियां प्राप्त करना शिक्षा की आवश्यकताओं में से एक है और वह भी मुख्य आवश्यकता नहीं, उसका केन्द्रीय उद्देश्य है मानव मन और आत्मा की शक्तियों का निर्माण। वह ज्यादा नहीं तो कम-से-कम ज्ञान और ज्ञान तथा चरित्र और संस्कृति का उपयोग करने के संकल्प और शक्ति का निर्माण है जिसे मैं ज्ञान आदि का आवाहन कहना पसंद करूंगा। और इस भेद से बहुत अधिक फर्क पड़ जाता है। यह बात पर्याप्त रूप में सत्य है कि अगर हम केवल इतना ही चाहते हैं कि विज्ञान ने हमारे आगे जो जानकारियां सुलभ कर दी है उन्हीं को पा ले तो पश्चिम के विज्ञान को कच्चा निगल जाना या सावधानी से बनाये गये ग्रासों में लेना काफी होगा। परन्तु बड़ा प्रश्न यह नहीं कि हम कौन-सा विज्ञान सीखते हैं। सवाल यह है कि हम अपने विज्ञान से क्या और कैसे करेंगे, वैज्ञानिक मन और वैज्ञानिक खोज की आदत को फिर से पाकर क्या करेंगे? मैं यहां इस संभावना को एक ओर रखे देता हूं कि स्वाधीनता पूर्वक अपने स्वभाव के अनुसार काम करता हुआ भारतीय मानस भौतिक विज्ञान की नयी पद्धतियां खोज निकालेगा या भौतिक विज्ञान को एक नया मोड़ देगा। हम उसका नाता मानव मन की अन्य शक्तियों, और भौतिक विज्ञान के अन्य ज्ञान के साथ जोडेंगे जो हमारी बुद्धि और स्वभाव के अधिक प्रकाशदायक और शक्तिदायक भागों के साथ अधिक अंतरंग संबंध रखता हो। और इसमें भारतीय मानस की विशेष रंगत उसकी मनोवैज्ञानिक परिपाटी, उसकी आनुवंशिक क्षमता, उसके झुकाव और ज्ञान ऐसे सांस्कृतिक तत्व ल आते हैं जिनका बहुत अधिक महत्व है। एक भाषा का, संस्कृत या कोई और किसी भी स्वाभाविक, कुशल और मन के लिये उत्तेजक पद्धति से ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। इसमें हमें किसी भूत या वर्तमान शिक्षण पद्धति से चिपके रहने की जरूरत नहीं है। मुख्य प्रश्न है कि हम संस्कृत या अन्य भारतीय भाषाओं को किस तरह सीखें कि हम अपनी निजी संस्कृति के हार्द और अंतर्तमत तक पहुंचकर अपने अतीत की अभी तक जीवित शक्ति और अभी तक असृष्ट भविष्य की शक्ति में स्पष्ट तादात्म्य कैसे पैदा करें। हम अंग्रेजी या कोई विदेशी भाषा किस तरह सीखें और उसका उपयोग कैसे करें ताकि अन्य देशों के जीवन, विचार और संस्कृति को भली-भांति जान सकें और अपने चारों ओर के जगत् के साथ उचित संबंध स्थापित कर सकें। सच्ची राष्ट्रीय शिक्षा का यही उद्देश्य और सिद्धांत है। हमारा लक्ष्य आधुनिक सत्य और ज्ञान की अवहेलना नहीं है, हम अपनी नींव अपनी ही सत्ता, अपने मानस और अपनी आत्मा पर रखना चाहते हैं।

इसका अर्थ यह हुआ कि वही शिक्षा सच्ची और जीवित हो सकती है जो मनुष्य के अनुंदर जो कुछ है उसे पूरे तौर पर ऊपर उठाने में उसे मनुष्य जीवन के समग्र उद्देश्य और पूर्ण क्षेत्र के लिये तैयार करने में और साथ ही वह जिस जाति या प्रजा का सदस्य है उसके प्राण, मन और आत्मा के साथ सच्चे संबंध स्थापित करने में उस महान्स समग्र मानव जीवन के साथ भी उचित नाता बनाने में सहायक हो जिसकी वह एक इकाई है और उसकी जाति या उसका राष्ट्र भी एक जीता-जागता, पृथक और फिर भी अविच्छिन्न सदस्य है। सारे प्रश्न को उस विस्तृत और समग्र सिद्धांत के प्रकाश में देखने से हमें यह स्पष्ट धारणा मिल सकती है कि हमारी शिक्षा को क्या होना चाहिये और हम अपनी राष्ट्रीय शिक्षा के द्वारा क्या उपलब्ध करना चाहेंगे। सबसे बढ़कर हमें आज, यहां भारत वर्ष में दृष्टिकी ओर आधार की इस विशालता की जरूरत है। आज भारत के जीवन हेतु की, उसकी नियति के बदलने की समस्त शक्ति, इस नाजुक घड़ी में उसकी एकमेव महान् आवश्यकता की ओर मुड़ी रहनी चाहिये - उसे व्यक्ति और राष्ट्र में अपने सच्चे स्व को प्राप्त करना और उसका पुनर्निर्माण करना है और इस तरह अपनी आंतरिक महानता को फिर से पाकर मानव जाति के जीवन में अपना उचित और स्वभाविक स्थान और भाग पाना है।

भारत ने हमेशा मनुष्य को आत्मा के रूप में देखा है। वह भगवान् का एक अंश है जो मन और शरीर में लिपटा हुआ है, प्रकृति में वैश्व स्व और आत्मा की सचेतन अभिव्यक्ति है। उसने हमेशा मनुष्य के अंदर मानसिक, बौद्धिक, नैतिक, क्रियाशील, व्यवहारिक, सौंदर्यग्राही, सुखवादी, प्राणमय और भौतिक सत्ता को रोपा और प्रतिष्ठित किया है। लेकिन इन सब चीजों को एक ऐसी आत्मा की शक्तियों के रूप में देखा गया है जो इनके द्वारा अभिव्यक्त और इनके विकास के द्वारा विकसित होती है। फिर भी ये चीजें आत्मा नहीं है क्योंकि वह अपने आरोहण के शिखर पर इन सब चीजों से ऊपर एक आध्यात्मिक सत्ता तक जा पहुंचती है और भारत ने इसी में मानव आत्मा की परम अभिव्यक्ति और उसकी चरम दिव्य मानवता के, उसके परमार्थ और उच्चतम पुरूषार्थ के दर्शन किये हैं। इसी तरह भारत ने राष्ट्र या जाति का अर्थ एक संगठित शासन या हथियारों से लैस ऐसी कार्यक्षम जाति नहीं समझा जो जीवन संघर्ष के लिये पूरी तरह तैयार हो और राष्ट्रीय अहंकार की सेवा में सब कुछ लगाने के लिये तत्पर हो। यह तो एक लौह् कवच का मुखौटा है जो राष्ट्र पुरूष को भारग्रस्त करता है। भारत की दृष्टि में राष्ट्र एक सामुदायिक आत्मा और जीवन है जो समग्र रूप से प्रकट हुई है, जो अपनी प्रकृति को स्वभाव और स्वधर्प के रूप में प्रकट करती है और अपने बौद्धिक, सौंदर्यग्राही, नैतिक, क्रियाशील, सामाजिक, राजनीतिक रूपों में और संस्कृति में प्रकट करती है। और इसी तरह मानव जाति के बारे में हमारी सांस्कृतिक कल्पना भारत की उस प्राचीन दृष्टि के अनुरूप होनी चाहिये जिसके अनुसार विश्व-रूप मानव जाति में प्रकट हो रहे हैं और प्राण और मन में एक उच्च, चरम आध्यात्मिक उद्देश्य के साथ विकसित हो रहे हैं। इसमें संघर्ष और सहमति के द्वारा एकता की ओर बढ़ती हुई आत्मा, मानव जाति की आत्मा का ख्याल होना चाहिये जो अपनी अनुभूतियां बढ़ाती जाती है और अपनी विभिनन जातियों की आवश्यक विभिन्न संस्कृतियों और जीवन के प्रयोजनों के द्वारा आवश्यक विभिन्नता को बनाये रखती है। वह व्यक्ति की शक्तियों के विकास के द्वारा और अधिक दिव्य सत्ता और जीवन की शक्तियों के विकास के द्वारा और अधिक दिव्य सत्ता और जीवन की ओर प्रगति के द्वारा पूर्णता की खोज करती है और जाति के जीवन में भी इस प्रकार की पूर्णता का अनुभव करती है, ।

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