डॉ0 अम्बेडकर , संविधान सभा और संवैधानिक नैतिकता

डॉ0 अम्बेडकर , संविधान सभा  और   संवैधानिक नैतिकता 

लोकतंत्र में बहस महत्वपूर्ण है। विचारों से अहसमति लोकतंत्र का हिस्सा है। चुनी हुई संसद द्वारा पेश किए गए बिल पर मर्यादित बहस स्वीकार्य है। बहस में ऐतिहासिक, कानूनी, सांस्कृति, धार्मिक, नैतिक, अंतराष्ट्रीय कानूनी के तर्क रखे जाते है। संसद में पेश करने पर प्रारूप आमजन एवं सांसदों के लिए पढने, समझने के लिए उपलब्ध रहता है। सिविल सोसायटी भी अपना पक्ष रखती है। मिडिया भी पक्ष, विपक्ष, विषय के विशेषज्ञ, सिविल सोसायटी को एक मंच पर लाकर लोगो को प्रस्तावित कानून के बारे में शिक्षित करने का प्रयास करता है। संसद में बिल पर वोटिंग होती है बहुमद मिलने पर राष्ट्रपति के अनुमोदन के बाद बिल कानून के रूप में राजपत्र में छपने पर एक निश्चित दिन से लागू किया जाता है। उल्लेखनिय है कि इस प्रक्रिया में न्याय पालिका की भूमिका कानून बनने के बाद आती है।  जो भी निर्णय हो , सबको सम्मानपूर्ण उसको आदर करना चाहिए। इस प्रक्रिया का आदर करना संविधान नैतिकता कहलाती है जैसा कि डॉ0 अम्बेडकर ने संविधान प्रारूप को पेश करते समय 04 नवम्बर 1948 में संविधान सभा में कहा था।

भारत  की शिक्षण संस्थाओं में कोंस्टीटूएंट  असेंबली डिबेट्स को सम्मलित लिया जाना चाहिए . राष्ट्रीय एकता और अखंडता को सर्वोपरी रखते हुए राजनीतिक , सामाजिक और आर्थिक क्रांति के लिए सर्वसम्मति और सामंजस्य के सिद्धांत के आधार पर भारत के संविधान का निर्माण किया गया।संविधान सभा के वाद विवाद (Constituent Assembly  Debates) के अध्यन करने पर स्पष्ट दिखता है.

 यूनिफॉर्म सिविल कोड पर डॉ अंबेडकर (23 Nov 1948 CAD) का कहना था कि जब 90 परसेंट से ज्यादा विधिक प्रावधान मुसलमान समाज ने मान लिया है तो यूनिफॉर्म सिविल कोड  को स्वीकार  करने में क्या  आपत्ति है ?सुप्रीम कोर्ट में  यूनिफॉर्म सिविल कोड विषय पर याचिकाओं में इसी बात पर जोर दिया गया कि संसद यह तय करें कि एक समय सीमा में यूनिफॉर्म सिविल कोड को लागू किया जाए.   डिबेटस  को पड़ने पर यह भी मालूम होता है कि संविधान सभा की अपेक्षा थी कि कालांतर में अल्पसंख्यक वर्ग जैसा शब्द ही संविधान में नहीं रहेगा। भारत में पचाने की क्षमता  ( historical process of assimilation )भारतीय संस्कृति और सभ्यता की ख़ास बात रही है (Dec 1948 CAD )


प्रोकेटीशाह भी भारत के संविधान के अनुच्छेद 01 में सेकुलर शब्द को जुड़वाना चाहते थेपरन्तु भारतीय संविधान सभा को सेकुलर शब्द के खुराफातीशरारती प्रयोग को भलीभांति समझते थे इसलिए संविधान सभा ने सेकुलर शब्द को भारत के संविधान के अनुच्छेद 01 में जोड़ने के प्रस्ताव को अस्वीकार किया आज  संविधान सभा के निर्णय को समझा जा सकता है संविधान सभा की दूरदृष्टि एवं गंभीरता को समझने की आवश्यकता है।  सेकुलर शब्द के दुरूपयोग की संभावना अनन्त है इसी संविधान सभी ने प्रारूप संविधान के अनुच्छेद 49    वर्तमान के अनुच्छेद 60) में भारत के राष्ट्रपति द्वारा शपथ में ईश्वर शब्द को जुड़वाया यह बहस भारत में    सेकुलरिज्म को समझने के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।

 संविधान में आरक्षण केवल 10 वर्ष के लिए दिया गया था वह भी केवल संसद व विधानसभा के चुनाव में जबकि 70 वर्षों के बाद आज भी आरक्षण लागू है डॉ अंबेडकर आज की दशा देखकर यही कहते कि हमारी शिक्षा और आर्थिक नीतियों में कमी का आईना है आरक्षण की निरंतरता. सुप्रीम कोर्ट में  यूनिफॉर्म सिविल कोड विषय पर याचिकाओं में इसी बात पर जोर दिया गया कि संसद यह तय करें कि एक समय सीमा में यूनिफॉर्म सिविल कोड को लागू किया जाए मौजूदा आरक्षण नीति में बदलाव की आवश्यकता है इससे इनकार नहीं किया जा सकता . पिछले कई वर्षों को देखते हुए यह सामने आया है कि आरक्षण का लाभ जिनके लिए संविधान सभा ने और डॉक्टर अंबेडकर ने जिसके लिए यह प्रावधान किए थे उन लोगों तक नहीं पहुंच पा रहा है दुर्भाग्य यह है कि आरक्षण का लाभ भी कुछ परिवारों तक सीमित हो गया है यह राजनीति में भी यही हालत है और पब्लिक सर्विस में भी यही देखा जा रहा है

 न्यायालों  में पीआईएल- लोक हित याचिका  - लोकतंत्र में राजनीतिक शिक्षा पर पर्दा डालने का काम किया है आज की पीआईएल ने। संविधानिक  नैतिकता पर डॉ अंबेडकर का आकलन भी आज के भारत को बहुत अखरता। यह लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है क्योंकि लोकहित याचिका में प्रगतिशील निर्णयों को न्यायालय द्वारा पारित करा दिया जाता है परंतु आमजन जिसके लिए तैयार नहीं होते. न तो सरकार तैयार होती है न  ही लोग तैयार होते हैं।  इसलिए न्यायालय द्वारा प्रगतिशील और शुभ निर्णयों को भी दमनकारी नीति ही समझा जाता है अच्छा तो यह हो कि जो भी विषय लोकहित को हैं उन्हें पार्टी अपने मेनिफेस्टो में लाएं और उनके ऊपर चुनाव लड़े जिससे कि राजनीतिक पार्टी में भी एक गम्भीरता  आए और मतदाता का भी राजनीतिक शिक्षण प हो सके.

 सी ए ए  2019 ,एन पी आर और   एन सी आर में जो कुछ हो रहा है वह यही कहता है कि डॉ अंबेडकर की आशंका और भय सही था संसद द्वारा पारित कानून  जब सर्वोच्च न्यायालय में याचिका लंबित हो तो शाहीन बाग जैसे प्रयोग लोकतंत्र का मजाक है।  लोकतंत्र की लक्ष्मण रेखा की हत्या है।सांविधानिक नैतिकता  की ईटों की चिनाई का काम संतोषजनक नहीं रहा।   सी ए ए  2019 का एक इतिहास से जिस से इंकार नहीं किया जा सकता  ..एनपीआर प्रक्रिया एक प्रगतिशील प्रक्रिया है जिससे दलित गरीब और वंचित वर्ग को सीधा ही सरकार द्वारा लाभ पहुंचाया जा सकता है।  एनआरसी भारत की एकता अखंडता और रक्षा के लिए बहुत महत्वपूर्ण है एनआरसी जैसी प्रक्रिया लगभग सभी देशों ने पूरी कर ली है भारत अभी इस प्रक्रिया में बहुत पीछे हैं

कोरोना  महामारी के संक्रमण में यह भी बात सामने आई है कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 28 पर  पुनर्विचार की आवश्यकता है।  इससे सरकारी विद्यालयों में धार्मिक शिक्षा दी जावे। संविधान सभा में  भी  प्रश्न उठा था और उस वक्त डॉ अंबेडकर द्वारा अनुच्छेद 28 में धार्मिक शिक्षा को नहीं देने का कारण बताया गया था  कि कुछ धर्म जैसे इस्लाम और क्रिश्चियनिटी में  एंटीसोशल और नॉन  सोशल   का भाव है (7th December, 1948 CAD). 1948 में भारत के विभाजन के कारण इस तर्क के कारण धार्मिक शिक्षा को सार्वजनिक विद्यालयों और महाविद्यालयों से अलग कर दिया गया।  अल्पसंख्यक शब्दों का प्रयोग संविधान में अस्वीकार्य है क्योंकि जिस राज्य में सबको समानता का अधिकार मिला हो उसमें धर्म के नाम पर विशेष दर्जा दिया जाना समानता के अधिकार एवं सेकुलरिज्म के विरुद्ध है।  इसका परिणाम यह है कि कर्तव्य बोध  को क्षीण कर रहा है   क्या कारण है कि सरकार द्वारा जारी निर्देशों की पालना के बाद फतवे जारी किए जाने की अपेक्षा है ? जिससे कर्तव्य  बोध  को जगाया जा सके।भारत की   संविधानिक नैतिकता यह अपेक्षा  करती है की   सामूहिक कार्य में धर्म की मर्यादा छुपाई नहीं जावे।   किसी भी धर्म में जो भी सिद्धांत , नीति  ,आचरण  ,व्यवहार , वचन , व्रत,  आपसी सहअस्तित्व  को  कमजोर करें उस को अस्वीकार  करें।  इस प्रकार की स्पष्टता  के कारण  ईमानदार  और सत्यनिष्ठ  धर्म के लोगों की स्वीकार्यता  पड़ेगी और धर्म के नाम पर राजनीति करने वालों का दबदबा  कम होगा.

 डॉ अंबेडकर जयंती पर संवैधानिक नैतिकता पर मंथन की आवश्यकता है। जिसका पहला पाठ यही है कि भारत के संविधान में मौलिक अधिकार निरंकुश नहीं है। मौलिक अधिकारों पर युक्तियुक्त प्रतिबंध का प्रावधान है। युक्ति युक्त प्रतिबंध किन परिस्थितियों पर किन मौलिक अधिकारों पर लागू होते हैं यह भी संविधान में स्पष्ट रूप से उल्लेखित है. आवश्यकता इस बात की है कि सभी नागरिक और जो लोग भारत में रह रहे हैं वह सब यह समझे कि लौकिक  विषय हो या धार्मिक विषय सभी पर युक्तियुक्त प्रतिबंध लागू होता है।  सभी से अपेक्षा की जाती है कि उनका पालन सुनिश्चित करें।

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