मौलिक विचारों की आवश्यकता-श्रीअरविन्द


 

मौलिक विचारों की आवश्यकता-श्रीअरविन्द 

 हमारी सबसे ज्यादा एवम् पीड़ादायक बेबसी यह है कि हाल  में युरोप द्वारा हमारे ऊपर  नई शर्तें और नया ज्ञान  थोपा जा रहा है । हमने इसे आत्मसात करने, हमने इसे नकारने, हमने इसे चुनने की कोशिश की परन्तु हम इसमें से किसी भी बात को सफलतापूर्वक नहीं कर पाये। इसे सफलतापूर्वक आत्मसात करने के लिए दक्षता की आवश्यकता है; लेकिन हम यूरोपियन परिस्थिति और ज्ञान में कौशल हासिल नहीं कर पाये, और हम उनके द्वारा जब्त, अधीन और गुलाम बना लिए गए। किसी भी बात को सफलतापूर्वक अस्वीकार करना इस बात पर निर्भर करता है कि हम कितनी समझदारी से यह समझ पाएँ कि हमें क्या अपनाना है। हमारी अस्वीकृति भी कुशलता पूर्वक होनी चाहिये,  हमें कोई बात समझ कर अस्वीकार करनी चाहिए बजाय इसके कि  हम समझने में असमर्थ रहें।

            लेकिन हमारा हिन्दु धर्म और हमारी पुरातन संस्कृति हमारी वह धरोहर जिसे हमने न्यूनतम बुद्धिमत्ता से सँजोया; हमने जिंदगी भर वह सब कुछ बिना सोचे-समझे-विचारे किया, हमने विश्वास किया बिना सोचे कि हम इस पर क्यों विश्वास कर रहे हैं, हम दृड़तापूर्वक यह इसलिये करते हैं कि कहीं-किसी किताबों में ऐसा लिखा है,  या किसी  ब्राह्मण ने ऐसा  कहा है, क्योंकि शंकर  ऐसा सोचते  हैं, या फिर ऐसा इसलिए करते हैं कि किसी ने इस बात का यह मतलब निकाला है कि हमारे मूल ग्रंथ या हमारा धर्म ऐसा कहता है। हमारा कुछ भी नहीं है और न ही हमारी बुद्धि में ऐसा व्याप्त है। जो कुछ भी हमारे पास है वह हमने कहीं से प्राप्त किया है। हमने नये ज्ञान के बारे में बहुत थोड़ा सा जाना है, हमने सिर्फ यही समझा है, जिसे यूरोपियन ने हमें  उनके और उनकी नवीन सभ्यता के बारे में समझाया है। हमारी अंग्रेजी सभ्यता – अगर उसे हम सभ्यता कहें - तो हमारी निर्भरता 10 गुना बढ़ी है बजाय उसका निदान करने के।

            इससे भी ज्यादा सफलतापूर्वक चुनाव में हमारी बुद्धि का स्वावलंबी होना आवश्यक है। यदि हमारे पास सिर्फ नये विचार या नई व्यव्स्था उसी तरह से आते हैं जिस तरह से वे प्रस्तुत किये जा रहे हैं तब हम बजाय चुनने के उसकी नकल करें तो यह एक  मूर्खतापूर्ण और  अनुपयुक्त कदम  होगा। यदि हमें यह ज्ञान हमारे पूर्व ज्ञान के आधार पर है जो कि कई बार शुन्य था, हम उसको बिना समझे, मूर्खतापूर्वक अस्वीकर कर देंगें। चुनाव का तात्पर्य यह है कि हमें वस्तुओं को उस तरह नहीं देखना चाहिये, जिस तरह से विदेशी देखते हैं या फिर हमारे रूढ़िवादी पंडित जैसे देखते हैं, बल्कि हमें इनको उसी तरह से देखना चाहिये जिस तरह से वे हैं। लेकिन हमने उनको अंधाधुंध या बेतरतीब तरीके से आत्मसात कर लिया है या फिर अस्वीकार कर दिया है, हमें यह पता ही नहीं कि कैसे आत्मसात या अस्वीकृत करना चाहिए।  फलस्वरुप हम युरोपियन प्रभाव से पीड़ित हो जाते हैं और इस प्रकार हम कई मुद्दों पर हार जाते हैं या मूर्खतापूर्वक उसका विरोध करते हैं, अपने परिवेश के गुलाम बन जाते हैं और फिर हम न तो नष्ट होते हैं और न ही अस्तित्व बचा पाते हैं।   हम वास्तव में कुछ सरलता और सूक्ष्मता को सँभाल पाते हैं,  हम कुछ चमक के साथ खूबसूरत नकल कर लेते हैं, हम उसको प्रशंसा के साथ शानदार ढंग से उस विषय की बारीकता के साथ ग्रहण कर सकते हैं, लेकिन हम प्रायः सोचने में असफल हो जाते हैं और हम उनके जीवन और हृदय को नियंत्रित करने में असफल हो जाते हैं।  जबकि हम जीवन और हृदय पर नियंत्रण करके ही आशा रख सकते हैं और एक राष्ट्र के रूप बच सकते हैं।

            हम अपने खोये हुए ज्ञान की स्वतन्त्रता और लोच को किस तरह से पुनः प्राप्त कर सकते हैं? हम, भले ही कुछ समय के लिए, इसे जिस तरह से खोया है उसके विपरीत जाकर, या फिर सब विषयों में अपने विचारों को मुक्त कर, दासत्व से अधिकार की सोच अपनाकर ऐसा कर सकते हैं।  वह यह नहीं है कि सुधारक या शब्दों का अंग्रेजीकरण करने वाले हम से क्या चाहते हैं। इनका कहना है कि हमें सत्ताधारी पर ध्यान नहीं देना है और अन्धविश्वास और रीति रिवाजों के विरुद्ध विद्रोह कर के ऐसा कर सकते हैं और  अपने मस्तिष्क को इन बन्धनों से मुक्त कर सकते हैं। इनका कहना है से तात्पर्य है कि हमें त्यागना है मैक्स मुलर के अधिकार के लिए सायना के अधिकार को भी, शंकर के एकतावाद या अद्वैतवाद या फिर दार्शनिक हैकल के द्वैतवाद को भी, या फिर जो शास्त्रों के अनुसार है या फिर जो युरोप के अलिखित शास्त्रों के अनुसार है, या फिर ब्राह्मण के खिलाफ या फिर युरोप के वैज्ञानिकों और विचारकों या विद्वानों के हठधर्मी सुझावों को भी। दासता के ऐसे मूर्खतापूर्ण  कार्य को किसी भी प्रकार का आत्मसम्मान नहीं मिलता है। हमें वह कड़ी तोड़नी है, चाहे वो कितनी भी सम्मानित क्यों न हो, परन्तु यह सब स्वतंत्र रुप से होनी चाहिये, लेकिन यह होना चाहिए सत्य के लिए, यूरोप के नाम पर नहीं।  यह एक अच्छा सौदा नहीं होगा यदि हम अपने पुराने अलंकरण चाहे वो हमारे लिए कितने भी पुराने क्यों न हो गये हों, को युरोपियन शिक्षा के लिए आदान प्रदान करें या फिर हमारे हिंदुओं के लोकप्रिय अन्धविश्वास या मत को विज्ञान के भौतिकतवाद के अंधविश्वास से परिवर्तित करें।

            हमारी  पहली अवश्यकता है, अगर हमें अपना अस्तित्व बनाए रखना है तब, हमें विश्व में हमारे  नियत कार्य को पूरा करना है और वह यह है कि भारत के युवा सभी विषयों पर स्वतंत्रतापूर्वक अपने विचार व्यक्त करना सीखें ताकि हर विषय पर लाभदायक तरीके से उसकी जड़ तक जायें, न की सतह तक ही सीमित रह जायें, पक्षपात से रहित हों, कुतर्क और दुर्भावना से प्रेरित न हों, और तेज धार की एक तलवार की तरह सभी प्रकार के  दकियानूसी अंधकारवादी विचारधारा को काट दें, भीम की गदा की तरह प्रहार करना चाहिए। हम नहीं चाहते हैं कि हमारा मस्तिष्क युरोप के शिशुओं की तरह हो जाये, उनकी तरह कपड़े में लपेटे हुए नहीं रहें,  हमारे युवा ईश्वरीय प्रदत्त स्वतंत्र और अवरोध रहित गतिवान रहें, भारत की केवल सूक्ष्म ही नहीं बल्कि स्वाभाविक रूप से प्राप्त व्यापक और संप्रभुता को पुनः प्राप्त करें और अपने मूल्य को खुद समझें।  यदि हम अपनी पुरानी बेड़ीयों को पूरी तरह से हटा नहीं सकते हैं तो फिर बाल कृष्ण की तरह छकड़े को घसीटते हुए आगे बढ़ें और दो पेड़ों को, जो दो धारायें और अड़चनें आ रही हैं,  मध्यकाल का अंधापन, दुर्भावनायें, हठधर्मिता और आधुनिकता की स्वाभिमानता को, उखाड़ फेंके।  पुरानी नींव टूट चुकी है और  हम इस भयंकर उथल-पुथल और बदलाव की नदी में इधर से उधर बह रहे हैं। भूतकाल की बर्फ की चट्टानों के साथ चिपके रहने का कोई अर्थ नहीं है, ये तुरंत पिघल जाएंगे और  वे उन सब शरण लेने वालों को भयंकर खतरनाक पानी में गोते लगाने के लिए छोड़ देंगे। हमें इस कमजोर दलदल में फँसने की जरुरत नहीं है, न तो समुंदर में और न ही इस सूखी धरती पर जिसका सम्बन्ध उधार ली हुई युरोप की सभ्यता से है। वहाँ पर हमारा निश्चित ही दुःखभरा एवम् बुरा अंत होगा। अब हमें तैरना सीखना है ताकि हम जीवन के उस जहाज तक पहुँच जायें जहाँ पर सत्य कभी भी परिवर्तित नहीं होता है। इस प्रकार हम वापस उस अतिप्राचीन सुदृड़ चट्टान तक पहुंचे।

            हमें अपना चुनाव अंधाधुंद तरीके से बिना सोच विचार के  नहीं करना है और न ही कोई खिचड़ी पकानी है और बाद में यह घोषणा करें कि यह पूर्व और पश्चिम का समावेश है। हमको शुरुवात से ही, चाहे जो कुछ भी स्त्रोत हो, उस पर विश्वास करके स्वीकार नहीं करना चाहिए, बल्कि खुद सब पर प्रश्न कर अपनी राय खुद बना कर स्वीकार करना चाहिए। हमें इस बात से डरना नहीं है कि हम भारतीय नहीं कहलायेंगे या फिर इस खतरे में पड़ जायेंगे कि हम हिन्दू नहीं रहेंगे। यदि वास्तव में  अपने बारे में इस तरह सोचते हैं तो ऐसा कभी नहीं होगा कि भारत कभी भारत नहीं होगा या फिर हिन्दू हिन्दू नहीं रहेंगे। यह तभी सम्भव है जब हम स्वयं यह मान लें कि हम युरोप की नकल हैं तथा हमारा सारा कार्य  मूर्खतापूर्वक होता है। हमें कभी भी पक्षपात नहीं करना है, और हमें कोई निर्णय लेने के पहले इसकी जानकारी होनी चाहिए। मूलरुप से हमें यह सोचना होगा कि किसी भी बात को बिना कोई प्रश्न किये स्वीकार नहीं करना है।  इस तरह हमें अपनी पुरानी और नई, उन सभी राय से जिसका हमने परिक्षण नहीं किया है, हमारे हमेशा के पारंपरिक संस्कार और पहले से ही सोचे हुए निर्णय से छुटकारा पाना है।

 

श्रीअरविंद, CWSA Vol 12 पृष्ठ 39-41

हिंदी में अनुवाद के लिए के लिए श्रीमान मोती लाल जी का आभार

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