श्री कलराज मिश्र जी माननीय राज्यपाल, राजस्थान का उद्बोधन
माननीय राज्यपाल, राजस्थान का उद्बोधन
श्रीअरविन्द सोसायटी द्वारा आयोजित
‘संविधान में कलाकृतियां श्रीअरविन्द के आलोक में’
27 नवम्बर, 2021
जवाहर कला केन्द्र, जयपुर
श्री अरविन्द सोसायटी, जयपुर द्वारा आयोजित ‘संविधान की कलाकृतियां श्रीअरविन्द के आलोक में’ विषयक आज के इस गरिमामय समारोह में उपस्थित राजस्थान उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीष न्यायमूर्ति विनोद शंकर दवे जी, पूर्व अतिरिक्त महाधिवक्ता, राजस्थान उच्च न्यायालय श्री गुरूचरण सिंह गिल जी, श्री अरविन्द सोसायटी के राजस्थान सचिव श्री सूर्यप्रताप सिंह राजावत जी, सोसायटी के अध्यक्ष श्री आमोद कुमार जी एवं उपाध्यक्ष डॉ. निरूपम रोहतगी जी, सोसायटी के जयपुर अध्यक्ष श्री ए.के.सिंह जी और सचिव श्री दीपक तुलस्यान जी तथा अन्य उपस्थित सभी गणमान्यजन, मीडिया के मेरे साथियों।
यह अत्यन्त सुखद है कि श्री अरविन्द सोसायटी, राजस्थान ने भारतीय संविधान के कलापक्ष पर ऐसे सुन्दर आयोजन और महती प्रदर्षनी की पहल की है। महर्षि अरविन्द को मैं राष्ट्र ऋषि कहता हूं। राष्ट्रीयता से ओतप्रोत वह ऐसे महान व्यक्तित्व थे, जिन्होंने अपने चिंतन और सृजन से सदा ही हमें आलोकित किया है। अरविन्द ने राष्ट्रवाद को सच्चा धर्म मानते हुए राजनीतिक स्वतंत्रता को ईष्वरीय कार्य तक की संज्ञा दी है।
महर्षि अरविन्द के विचारों के आलोक में मूल भारतीय संविधान की प्राधिकृत प्रति पर कलाकृतियों का जो चित्रण हुआ है, उस पर अरविन्द के चिंतन के गहरे ओज को हम अनुभूत कर सकते हैं।
अरविन्द की एक बहुत ही महत्वपूर्ण पुस्तक है, ‘फाउण्डेषन ऑफ इण्डियन कल्चर’। जहां तक मुझे याद है, इसका हिन्दी संस्करण ‘भारतीय संस्कृति के आधार’ नाम से प्रकाषित हुआ है। इसमें वेदमय भारतीय संस्कृति के साथ भारत की कलाओं, इतिहास के साथ लोकतांत्रिक जीवन पद्धति का जो विष्लेषण महर्षि अरविन्द ने किया है, वह अद्भुत है। जितनी बार आप इस कृति के पढेंगे आपका मन इसे और पढ़ने का करेगा। मैं यह मानता हूं, किसी पुस्तक की यही सफलता है कि वह आपके मन को मथे।
भारतीय संविधान को मैं हमारे देष का जीवंत दस्तावेज इसीलिए कहता हूं कि यह ऐसा विधान है जिससे देष की शासन प्रणाली ही संचालित नहीं होती बल्कि इसमें भारतीय संस्कृति की उदात्त जीवनधारा को हम साक्षात् अनुभव कर सकते हैं। इसमें उच्च मानवीय आदर्षों के दृष्टिकोण को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गयी है। विष्वभर के सबसे लंबे हमारे लिखित संविधान में सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य की महती संकल्पना है।
भारतीय संविधान पर अपने विचार मैं निरंतर सार्वजनिक करता रहा हूं। मुझे इससे आंतरिक लगाव सा है। मेरी एक पुस्तक का नाम ही ‘संविधान, संस्कृति और राष्ट्र’ है। इसमें संविधान से जुड़ी संस्कृति के अपने विचारों को मैंने पाठकों से साझा किया है।
यह सुखद है कि संविधान के कलापक्ष को केन्द्र में रखते हुए यहां जवाहर कला केन्द्र में संविधान की मूल प्रति में उकेरे महान कलाकार नंदलाल बोस के नेतृत्व में बने चित्रों को प्रदर्षित किया जा रहा है। उन चित्रों में निहित महर्षि अरविन्द की विचार संबद्धता को भी यहां केन्द्र में रखा गया है। मैं समझता हूं, इस तरह के प्रयासों की ही आज अधिक आवष्यकता है जिससे संविधान की हमारी संस्कृति को व्यापक स्तर पर जन-जन में संप्रेषित किया जा सके।
मैं यह मानता हूं कि श्री अरविन्द की 150 वी जयंती पर इतिहास, संविधान और कला को जोड़ने का आपका यह प्रयास संविधान से जुड़ी कलाओं की समझ को नई दिशा देगा।
मैंने संविधान की मूल प्रति का अवलोकन किया है। इसके भाग दो में वेदमय भारतीय संस्कृति का चित्रण है। महर्षि अरविन्द वेद संस्कृति पर लिखते है ंकि .हम जो कुछ हैं और जो कुछ बनने की चेष्टा करते हैं, उस सब के मूल में प्रच्छन्न रूप से हमारे दर्षन का स्त्रोत, हमारे धर्मों का सुदृढ़ आधार, हमारे चिंतन का सार, हमारी आचारनीति और हमारी सभ्यता का सांराश, हमारी राष्ट्रीयता को थामे रखने वाला स्तम्भ, वाणी की एक लघु राषि अर्थात् वेद है। इसी तरह संविधान के भाग तीन में रामायण का अंकन है। महर्षि अरविन्द ने रामायण को आदर्ष जीवन चरित्र के साथ उदात्त जीवन मूल्यों का सार बताया है। संविधान में ब्रिटिश विद्रोह और टीपू सुल्तान और रानी लक्ष्मीबाई का अंकन चित्रकारों ने किया है। महर्षि अरविन्द के मत में बलिदान में एक अतुलनीय आध्यात्मिक चुम्बकीय शक्ति होती है जो चमत्कार करती है। एक समस्त राष्ट्र, पूरा संसार वह अग्नि पकड़ लेता है जो कुछ एक हृदय में प्रज्ज्वलित हुई होती है।
संविधान की मूल प्राधिकृत प्रति पर उकेरी कलाकृतियों को जितनी बार देखेंगे महर्षि अरविन्द और ऐसे ही दूसरे जो देष के महापुरूष हुए हैं उनके चिंतन का आलोक हमें उनके निहितार्थ में दिखता मिलेगा। इसलिए मैं चाहता हूं कि संविधान से जुड़ी भारतीय कला-संस्कृति के ऐसे सार्वजनिक प्रयास सभी स्तरों पर हो ताकि संविधान की हमारी संस्कृति का अधिकाधिक प्रसार हो सके।
मुझे आप सबसे साझा करते हुए प्रसन्न्ता है कि देष के इतिहास में पहली बार राजस्थान विधानसभा के अपने अभिभाषण के आरम्भ में मैंने संविधान की उद्देषिका और मूल कर्तव्यों के वाचन की परम्परा स्थापित की। इसके पीछे मेरी मंषा यह रही है कि संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों का एक बड़ा दायित्व भारतीय संविधान और इससे जुड़े मूल तत्वों अर्थात् इसकी संस्कृति के प्रति सभी को जागरूक करना भी है। इसीलिए राजस्थान के राज्यपाल और प्रदेष के विष्वविद्यालयों के कुलाधिपति रूप में सभी विष्वद्यिलयों में संविधान पार्क बनाने की पहल हमने की है। यह सुखद है कि इस पहल के सकारात्मक परिणाम आ रहे हैं और अधिकांष विष्वविद्यालयों में यह पार्क बनकर तैयार हो गए हैं।
मैं यह मानता हूं कि संस्कृति व्यक्ति का परिष्कार करती है। यह कहने भर की बात नहीं है। इसे ऐसे समझे जाने की भी जरूरत है कि संस्कृति अपने जीवंत मूल्यों के साथ व्यक्ति में निरंतर अपनी छाप छोड़ती है। संविधान ने हमें मूल अधिकार दिए हैं तो कर्तव्य बोध भी दिया है। दोनों के मध्य संतुलन रखकर व्यक्ति यदि चलता है तभी राष्ट्र हित और नैतिक मूल्यों की सही मायने में पालना कर सकता है। ऐसा जब होता है तो संस्कृति अपने आप ही विकसित होती जाती है।
देष के संविधान की मूल प्राधिकृत प्रति में भारतीय संस्कृति का चित्रण भारत की संस्कृति और सभ्यता को समझने का आधार है। मैं यह मानता हूं कि संविधान सभा के सदस्यों द्वारा भारत की भावी पीढ़ी के लिए संदेश देने का प्रयास इसके जरिए किया गया है। संविधान की कलाकृतियों को देखेंगे तो यह भी लगेगा कि पृथ्वी पर सबसे पुरानी सभ्यता के सांस्कृतिक मूल्यों को समग्र दृष्टिकोण से इसमें उकेरा गया है। प्रत्येक चित्रण उस युग के युगधर्म का प्रतिनिधित्व करता है। दरअसल, यह निरंतरता के साथ परिवर्तन को समझाने का ही एक तरह से प्रयास है। शांतिनिकेतन के आचार्य नंदलाल बोस के नेतृत्व में जिन कलाकारों ने संविधान की प्रति पर कलाकृतियां उकेरी, उनमें राजस्थान के हमारे अपने स्व. कृपालसिंह सिंह शेखावत भी प्रमुख रहे हैं। यह पूरे प्रदेष के लिए गौरव की बात है।
अंग्रेजी में भारत का संविधान प्रेम बिहारी रायजादा सक्सेना द्वारा हस्तलिखित किया गया और हिंदी में सुलेखन का कार्य वसंत कृष्ण वैद द्वारा किया गया। प्रस्तावना का चित्रण राममनोहर सिन्हा ने किया। संप्रतीक को दीनानाथ भार्गव ने सजाया। संविधान की मूल कॉपी यदि देखेंगे तो आज भी वहाँ श्री राम और श्रीकृष्ण सहित भारतीय वेद, यज्ञ आदि की परम्पराओं का अनूठा उजास मिलेगा। भारत के राष्ट्रीय चिह्न अशोक स्तंभ की लाट का बनाया, हड़प्पा की खुदाई से मिले घोड़े, शेर, हाथी और सांड़ की चित्रों को लेकर सुनहरी किनारियों को इसमें सजाया गया है और इन सबके पीछे गहरे निहितार्थ रहे हैं। महर्षि अरविन्द ने भारतीय संस्कृति से जुड़े इन प्रतीकों को अपनी पुस्तक ‘भारतीय संस्कृति के आधार’ में गहरे से व्याख्यायित किया है।
मेरा यह मानना है कि संविधान को यदि कला और महर्षि अरविन्द की दृष्टि के आलोक में देखेंगे तो आपको यह भी लगेगा कि भारतीय कला-संस्कृति का यह प्रत्यक्ष दृष्यमान स्वरूप है। इसके बारे में जितना भी कहा जाएगा, कम होगा। मुझे विष्वास है, जवाहर कला केन्द्र की कलादीर्घा में संविधान की कलाकृतियों को देखकर आपको इस संबंध में और भी बहुत कुछ नया मिलेगा।
आपने महर्षि अरविन्द के आलोक में संविधान की कलाकृतियों से जुड़े इस आयोजन में मुझे याद किया और अपनी बात रखने का अवसर दिया, इसके लिए मैं हृदय से आभारी हूं। आप सभी को इस गरिमामय आयोजन के लिए बहुत बधाई और शुभकामनाएं।
जय हिन्द।
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