संविधान में भारत बोध "Idea of India"
भारत के संविधान का पहला अनुच्छेद ‘‘भारत’’ से शुरू होता है। भारत के संविधान में लिखा है कि भारत राज्यों का संघ होगा। राज्यों का विवरण पहली अनुसूची में मिलता है। यह भारत का परिचय 1950 से लागू होता है, परन्तु भारत को जानने के लिए संविधान सभा ने कला के माध्यम से केवल संकेत ही नहीं वरन भारत के इतिहास के कालखण्ड में युग धर्म व युग प्रवर्तक घटनाओं का उल्लेख कर भारत बोध "Idea of India" का नक्शा हमारे सामने रखा है। भारत बोध "Idea of India" एक सर्वांगीण विचार है। भारत के भूगोल, अंतर्राष्ट्रीय सीमा, प्राणिक प्रचंडता बौधिक शक्ति और अध्यात्म के अभाव में भारत बोध अधूरा ही रहेगा। वैदिक काल से 21वीं सदी तक के इतिहास में उतार-चढ़ाव की विश्लेषण भारत बोध का अभिन्न अंग रहेगा। इसी क्रम में हम कह सकते है कि धर्म, कर्म, यज्ञ का सही ज्ञान ही भारत बोध का आधार हो सकता है।
षड़दर्शन इस बात का प्रमाण है कि सत्य के पुर्नजन्म को विभिन्न द्वारों से भारत ने स्वागत किया है। छह दर्शन समान्तर रहे है। सभी की विशिष्ठता है। भारत ने सभी को स्वीकारा है। किसी भी दर्शन के इतिहास में पुर्नजागरण का पुनरूत्थान को कारण नहीं माना। बल्कि सनातन सत्य की अभिव्यक्ति मात्र मानकर ‘‘एको अहं, द्वितीयो नास्ति’’ को ही बार-बार स्थापित किया है।
यहां यह भी नहीं भूलना चाहिए कि संविधान के मूल कर्त्तव्यों में जिस सामासिक संस्तृति के बारे में लिखा है उसकी आधारशीला भारत की आध्यात्मिकता है जिसके कारण संश्लेषण, एकीकरण, आत्मसात्करण एक स्वभाव के रूप में सहज रूप से भारत की हवा में महसूस की जा सकती है। दूसरे शब्दों में कहे तो भारत की पाचन शक्ति अद्वितीय है।
भारत का संविधान 22 भागों में बंटा है। सभी भाग भारतीय संस्कृति, सभ्यता,
इतिहास और विरासत से शुरू होते है। भाग 1 में मोहनजोदाड़ो की मोहर का चित्र दर्शाता है कि भारत की सभ्यता मोहन जोदाड़ो से आरम्भ होती है। मुहर एक राज्य का प्रतीक है। मुहर-लोगो-एक व्यवस्था सम्प्रभुता को दर्शाता है। पुरातत्त्व की दृष्टी से संसार की प्राचीनतम सभ्यता है। हड़प्पा, सिंधु सभ्यता व सरस्वती नदी, आर्य पर सेटेलाईट इमेजिंग, डीएनए शोध, भू-विज्ञान, हाइड्रोडायनेमिक्स, पुरातत्वविज्ञान, पुरालेखाशास्त्र के आधार पर 19वीं सदी के उपनिवेशी इतिहास पर नए प्रमाणों व निष्कर्ष को स्वीकार करने की जरूरत है। क्योंकि उक्त नए तथ्यों के अभाव में इन विषयों पर ग्रहण लगा हुआ था। आज विज्ञान ने उस ग्रहण को पूर्ण रूप से हटा दिया है। जहां स्पष्ट हो गया है आर्य आक्रमण सिद्धांत एक मिथ्या है। आर्य के बारे में श्रीअरविन्द लिखते है
‘‘ अपने सबसे मौलिक अर्थों में, आर्य का अर्थ है एक प्रयास या एक विद्रोह और उस पर काबू पाना। आर्य वह है जो अपने बाहर और अपने भीतर जो मानव उन्नति के विरोध में खड़ा है, उस पर विजय प्राप्त करता है और जीतता है। आत्म-विजय उसके स्वभाव का प्रथम नियम है। वह पृथ्वी और शरीर पर विजय प्राप्त करता है और सामान्य पुरुषों की तरह उनकी नीरसता, जड़ता, मृत दिनचर्या और तामसिक सीमाओं के लिए सहमति नहीं देता है। वह जीवन और उसकी ऊर्जाओं पर विजय प्राप्त करता है और उनकी भूखों और लालसाओं पर हावी होने या उनके राजसिक जुनून के गुलाम होने से इनकार करता है। वह मन और उसकी आदतों पर विजय प्राप्त करता है, वह अज्ञानता, विरासत में मिले पूर्वाग्रहों, प्रथागत विचारों, सुखद विचारों के एक खोल में नहीं रहता है, लेकिन यह जानता है कि कैसे खोजना और चुनना है, बुद्धि में बड़ा और लचीला होना है, भले ही वह दृढ़ और मजबूत हो क्योंकि वह हर चीज में सच्चाई, हर चीज में सही, हर चीज में ऊंचाई और आजादी चाहता है।’’ (आर्य 9.1914)
भाग 2 में वैदिककाल के गुरूकुल का चित्रण ज्ञान, खोज, बौद्धिकता, आध्यात्मिकता, शोध के बारे में इंगित करता है जो कि एक समृद्ध व शांति के अभाव में सम्भव नहीं है। वेदो के रचिता अपौरूष्य माना है। भारतीय चिंतन शास्त्रार्थ का स्वागत करता रहा है। योग, सांख्या, वेदांता, विशिष्ट वेद, मिमांसा, उपनिषेद। महावाक्य - ‘‘अहम् ब्रह्मास्मि’’ ‘‘वासुदेवः सर्वम-एकोहम बहुस्याम’’ इसकी अनुभूति आज भी हमारे संतो, धर्मगुरूओ के माध्यम से सहज ही जिज्ञासु, मुमुक्षु को उपलब्ध है। आधुनिक भारत में इसका उदाहरण रामकृष्ण परमहंस, स्वामीविवेकानन्द, श्रीअरविन्द आदि के जीवन से मिलता है। श्रीअरविंद का उत्तरपाड़ा का भाषण सनातन धर्म के मर्म को समझने और अनुभूति के लिए सबसे सरल माध्यम है।
भाग 3 में महाकाव्य रामायण का चित्रण है। रामायण एक ऐसा ग्रंथ है जिसके द्वारा भारत की संस्कृति एवं जीवन मूल्यों को समझा जा सकता है। वहां राज धर्म, पुत्र धर्म, पत्नी धर्म प्रजा धर्म, गुरू धर्म, शिष्य धर्म आदि मानवीय संबंधों को निभाने में द्वंद व संशय का दूर करता है एवं चार पुरूषार्थ में समन्वय स्थापित कर समाज को दिशा देता है जिसमें स्थूल जगत, जड़ जगत व सूक्ष्म जगत के प्रभावों के साथ-साथ पुनर्जन्म, कर्म, ब्रह्म, यज्ञ के बारे में भी समझाता है। रामायण के वैशक्तिकरण भी हमे याद रखना चाहिए। अद्वैत जिसमें ईश्वर की सृष्टि में धर्म ही राहा पर चलने में जीत का आश्वासन, रामायण का सार है।
भाग 4 में महाभारत के धर्मयुद्ध कुरूक्षेत्र में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण और अर्जून का संवाद मानव जाती का संवाद है। अर्जून के प्रश्न हर व्यक्ति के प्रश्न है। जीवन में द्वंद का उत्तर आध्यात्मिक ज्ञान में श्रीकृष्ण द्वारा दिया गया है। यही सनातन धर्म का आधार है। यह अतिश्योक्ति नहीं होगी कि स्वतंत्रता संग्राम में गरमदल के लिए गीता प्रेरणा स्त्रोत थी। जहां धर्म की रक्षा के लिए सशस्त्र क्रांति को उचित ही नहीं बल्कि अनिवार्य शर्त के रूप में क्रांतिकारियों ने बेड़ा उठाया था।
भाग 5 में महावीर का चित्र मिलता है उस कालखण्ड में अहिंसा परमो धर्म की गुंज सुनाई देती है परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि अहिंसा परमो धर्म भारतीय समाज के लिए नवीन सिद्धांत था। भगवान महावीर के अनेकांतवाद सिद्धांत की आवश्यकता आज केवल भारत को ही नहीं वरन पूरे विश्व को इसका ज्ञात करवाना, भारत का दायित्व है। भारत के अनेकांतवाद को यदि भारतीय मुस्लीम लीग समझती तो भारत का बंटवारा रूक सकता था। विश्व शांति के लिए एक सफल सिद्धांत साबित हो सकता है।
भाग 6 में भागवान गौतम बुद्ध का चित्र दिखता है। बुद्ध को करूणा का प्रतीक माना है। ऐसा माना जाता है कि जब बुद्ध को निर्वाण उपलब्ध हो रहा था तो वे इसलिए रूक गए कि वे चाहते थे कि अन्य पिपासु/मुमुक्ष को भी निर्वाण प्राप्त हो। अतः सारनाथ में पहला वचन दे आगामी यात्रा शुरू की। अंतिम समय तक वचन देते रहे। गौतम बुद्ध का वचन था - आत्म दीपो भवः। गौतम बुद्ध के निर्वाण को सनातन धर्म में एक पड़ाव माना गया है। जहां जीवन ‘‘जीवनमुक्त’’ योगी को समाज का आदर्श पुरूष माना है गीता की भाषा में लोक संग्रह के लिए वह समाज में रहता है और आध्यात्मिक उपलब्धि का आनन्द भी पाता रहता है।
संविधान के अन्य भागों में सम्राट अशोक, गुप्त काल की कला, उडीसा की मूर्तिकला, राजा विक्रमादित्य का दरबार, नटराज, भागीरथ का तप, नालंदा का चित्रण प्राचीन भारत की याद दिलाते है जिसके बारे में श्रीअरविन्द लिखते है
‘‘जब प्राचीन भार की ओर देखते है तो सर्वत्र एक विराट सिसृक्षा, कभी भी खाली न होने वाले जीवन का आनन्द और उसकी अकल्पनीय रचनाओं का प्रयत्न हमें आश्चर्यचकित कर देता है। कम से कम तीन हजार वर्षों तक निश्चय ही यह अवधि और लम्बी हो सकती है, वह निरन्तर, भरपूर मात्रा में, उदारखर्ची के साथ, अनन्त पहलुओं, ढंग और ढर्रों में बिखरे, लोकतंत्र, राज्य, साम्राज्य, दर्शन, विश्व प्रक्रिया के सिद्धांत, विज्ञान मत-मतान्तर, कला और काव्य, ना प्रकार के स्मारक, महल-मंदिर, जन-कल्याण के कार्य, जातियों, समाज, धार्मिक शास्त्र, विधान, नियम, कर्मकांड, भौतिक विज्ञान, मनोविज्ञान तथा योगपद्धतियों, राजनयशास्त्र, व्यवस्था और शासन के सिद्धान्तों, आत्मिक और सांसरिक कलाओं, उद्योग धन्धों, व्यापार और उत्तम कला की वस्तुओं का निर्माण करता रहा। जाने यह सूची कितनी लम्बी हो सकती है और प्रत्येक क्षेत्र में आपको सक्रियता का ज्वार उमड़ता दिखेगा। वह रचता है। रचता जाता है, और थकता नहीं, उसे कहीं इसका जैसे अंत ही नजर नहीं आता, उसे सुस्ताने के लिए न स्थान चाहिए न समय।’’ (CWSA-20)
मध्यकालीन भारत के चित्रण में तीन चित्र अकबर, छत्रपति शिवाजी महाराज और गुरूगोबिन्द सिंह जी उस काल खण्ड के संघर्ष, युद्ध, रक्तपात, जौहर, केसरी, नरसंहार की याद दिलाते है। जहां महाराणा प्रताप एक बड़े भूखण्ड के अधिपति थे जिन्होनें बप्पा रावल, राणा कुम्भा, राणा सांगा की विरासत को सर्वोपरि रखा, शिवाजी एक सशक्त राज्य के संस्थापक और गुरूगोविन्द सिंह आस्था, धर्म और समता के सर्वोत्तम धर्म अधिकारी थे।
यह संघर्ष काल डॉ. अम्बेडकर के शब्दों में मुसलमानों के लिए गर्व और हिन्दूओं के लिए शर्म है। जिनके बारे में ईमानदारी से संवाद से ही भविष्य की नींव रखी जा सकती है।
इसी काल खण्ड के बारे में रामधारी सिंह दिनकर लिखते है कि बीसवीं सदी में आकर भारत का जो बंटवारा हुआ, उसका बीज मुगल-काल में ही शेख अहमद सरहिंदी के प्रचार में था। शेख सैफुद्दीन को औरंगजेब ने अपना गुरू बनाया जिसका दादा शेख अहमद सरहिंदी था। औरंगजेब की वसीयत थी कि उसके मरने के बाद उसका राज्य तीन बेटो में बांट दिया जाए। यह संयोग की बात है कि पाकिस्तान की कल्पना पहले पहल इकबाल ने की जब वो मुस्लिम लीग का अध्यक्ष था और जिस पीर को अपना गुरू बनाया व शेख अहमद सरहिंदी की ही परम्परा में पड़ता था। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के पुत्र राजीव नैन प्रसाद की पुस्तक ‘‘राजा मानसिंह ऑफ आमेर’’ मध्यकालीन भारत में राजा मान सिंह की भूमिका पर गहन शोध है कि किस प्रकार राजनैतिक संधि कर भारत को धर्मांतरण की आंधी से बचाया।
दारा सिखों की आत्मा का पुनर्जन्म और औरंगजेब के जिन्न को बोतल में बंद करना अखंड भारत की मांग है। भारत बोध में दारा सिखों का सम्मान और औरंगजेब का निष्कासन बहुत महत्वपूर्ण है।हिन्दू-मुस्लिम सम्बन्धों के बारे में श्रीअरविन्द लिखते है
‘‘ मुस्लिम विजय द्वारा प्रस्तुत वास्तविक समस्या यह नहीं थी कि विदेशी शासन के आगे अधीनस्थ होना तथा स्वतंत्रता की पुनः प्राप्ति की योग्यता, बल्कि दो सभ्यताओं के बीच की थी, एक प्राचीन तथा अंतर्देशीय, दूसरी मध्यकालीन तथा बाहर से अंदर लाई गई। वह जिसने समस्या के समाधान को विलयहीन कर दिया वह था हरेक का एक शक्तिशाली धर्म के साथ जुड़े होना, एक युद्धक तथा आक्रामक, दूसरा आध्यात्मिक तौर पर वास्तव में सहनशील तथा लचीला, लेकिन अपने सिद्धांत के अनुशासन के प्रति जिद की हद तक निष्ठावान तथा सामाजिक ढांचों के अवरोध के पीछे प्रतिरोध करता हुआ। दो ही कल्पनीय समाधान थे, एक उच्चतर आध्यात्मिक सिद्धांत तथा रचना का पैदा होना जो दोनों का समझौता करता या एक राजनैतिक देशभक्ति जो धार्मिक संघर्ष को लांघती तथा दोनों समुदायों की एकता करवाती।’’ (CWSA 20)
यूरोप के कदम जब भारत में पड़े तब मध्यकालीन भारत में विदेशी संस्तृति के टकराव के कारण भारत क्षीण अवस्था में पहुंच चुका था, इस सम्बन्ध में श्रीअरविन्द भारत के पतन के तीन कारण बताते है 1. प्राणिक शक्ति का ह्ास, जीवन में आनन्द और रचनात्मक प्रतिका का बुझना, 2. प्राचीन बौद्विकता का रूद्ध होना और वैज्ञानिक तथा समीक्षात्मक जागरूक मानस की मूर्च्छा, 3. आध्यात्मिकता का मृत न होते हुए भी जीवन को तेजोदीप्त करने के कार्य से अलग हो जाना।
ब्रिटिश विद्रोह का चित्रण के लिए टीपू सुल्तान और रानी रानी लक्ष्मीबाई का चित्र संविधान में मिलता है। 1857 की क्रांति ने आज़ाद भारत की धारणा का शंखनाद किया था . धारणा की शक्ति पर श्रीअरविन्द लिखते है
‘‘धारणा की शक्ति अपने ही शहीद उत्पन्न करती है। तथा बलिदान में एक अतुलनीय आध्यात्मिक चुम्बकीय शक्ति होती है जो चमत्कार करती है। एक समस्त राष्ट्र, पूरा संसार वह अग्नि पकड़ लेता है जो कुछ हृदय में प्रज्ज्वलित हुई होती है। वह मिट्टी जिसने शहीद का लहू पिया हो वह एक प्रकार के दिव्य दिवानेपन से भर जाती है उसके अतिरिक्त बाकी सब आशाएँ व स्वार्थ महत्वहीन हो जाते हैं तथा जब तक उसकी पूर्ति नहीं होती कोई भी शांति या विश्राम उस धरती या उसके शासकों के लिये नहीं रह सकती।’’ (CWSA 6-7)
यह कुरुक्षेत्र युद्ध पांच हजार साल पहले हुआ था, इसके दो हजार पांच सौ साल बीत जाने के बाद बर्बर लोगों का पहला सफल आक्रमण सिंधु के दूसरे तरफ पहुंच सका। क्योंकि अर्जुन द्वारा स्थापित कानून का शासन ब्राह्मण से प्रेरित क्षत्रिय शक्ति के प्रभाववश देश की रक्षा करने में सक्षम था । उस समय भी देश में क्षत्रिय शक्ति का ऐसा संचय था कि उसके एक अंश ने ही देश को दो हजार वर्षों तक जीवित रखा है। उस क्षत्रिय शक्ति के बल पर चंद्रगुप्त, पुष्यमित्र, समुद्रगुप्त, विक्रम, संग्रामसिंह, प्रताप, राजसिंह, प्रतापादित्य और शिवाजी जैसे पुरूषों ने देश के दुर्भाग्य के विरुद्ध लड़ाई लड़ी। कुछ समय पहले ही गुजरात के युद्ध में और लक्ष्मीबाई की चिता पर उस शक्ति की अंतिम चिंगारी ही बुझी हुई थी ; इसके साथ ही श्रीकृष्ण के राजनीतिक कार्य के अच्छे फल और गुण समाप्त हो गए, अतः भारत और दुनिया की रक्षा हेतु एक और पूर्ण अवतार की आवश्यकता हुई ।( Sri Aurobindo बंगाली में लेखनः पृष्ठ 149)
आधुनिक काल के संदर्भ में अंग्रेजी सरकार के विरूद्ध स्वतंत्रता संग्राम से सम्बन्धित चित्रण में महात्मा गांधी और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के चित्र संविधान में मिलते है,
निष्क्रिय प्रतिरोध का सिद्धांत:
"निष्क्रिय प्रतिरोध का पहला सिद्धांत, जिसे नई
विचाराधारा ने अपने कार्यक्रम में सबसे आगे रखा है इसके
अंतर्गत वर्तमान परिस्थितियों में प्रशासन को असंभव बनाने के लिए
ऐसा कुछ भी करने से इनकार करना है जो ब्रिटिश वाणिज्य में या तो मदद करेगा।इस
रवैये का सार एक शब्द है, बॉयकॉट।" (CWSA खण्ड 06-07 पृष्ठ 281) "निष्क्रिय प्रतिरोध के
सिद्धांत का दूसरा सिद्धांत, दोनों विचारधारा के
राजनेताओं द्वारा स्वीकार किया गया है - इसके अनुसार एक
अन्यायपूर्ण जबरदस्ती आदेश या हस्तक्षेप का विरोध करना, यह न
केवल न्यायोचित है, बल्कि दी गई परिस्थितियों में, एक कर्तव्य
है। इसलिए हमें निष्क्रिय प्रतिरोध के सिद्धांत के तीसरे सिद्धांत को स्वीकार करना
चाहिए, देशद्रोही के दोषी के खिलाफ सामाजिक बहिष्कार वैध
और अपरिहार्य है।” (CWSA खण्ड
06-07 पृष्ठ 292) "इसलिए हमारा रक्षात्मक प्रतिरोध मुख्य रूप
से शुरुआत में निष्क्रिय होना चाहिए, हालांकि जब भी मजबूर किया जाए
तो सक्रिय प्रतिरोध के साथ इसे पूरक करने की तत्परता भी रहनी
चाहिए। CWSA खण्ड 06-07 पृष्ठ 301
श्रीअरविन्द लिखते है---
‘‘ जब तक शासन की प्रतिक्रिया शान्तिपूर्ण ढंग की रहती है और लडाई के नियमों के भीतर कार्य चलने दिया जाता है, निष्क्रिय प्रतिरोध निश्चय ही शान्त रहेगा। किन्तु इससे भिन्न स्थित आने पर निष्क्रियता को एक क्षण के लिए भी निष्क्रिय रहने की जरूरत नहीं है। अमानुषिक अवैधानिक अत्याचारों के आगे झुकना या सर्मपण कर देना, देश की वैधानिक व्यवस्था के नाम पर अपमान और गुण्डागर्दी सह
लेना कार्यरत है और देश के पौरूष को पतित करना है, यह कार्य हमारे, अपने और मातृभूमि के भीतर निहित देवत्व का
अपमान है।जिस क्षण इस प्रकार के बल प्रयोग का प्रयास किया जाता है, निष्क्रिय
प्रतिरोध समाप्त हो जाता है और सक्रिय प्रतिरोध एक कर्तव्य बन जाता है। CWSA खण्ड 06-07 पृष्ठ
294
इसी प्रकार विभाजन विभिषिका का चित्रण भी
संविधान में मिलता है।
"एक बात के बारे में हम
निश्चित हो सकते हैं कि हिंदू-मुसलमान एकता राजनीतिक समायोजन या कांग्रेस की
चापलूसी से सम्भव नहीं हो सकती है। इसे दिल और दिमाग में गहराई से खोजा जाना चाहिए, क्योंकि जहां विघटन के कारण
हैं, वहां उपचार की तलाश की जानी
चाहिए। हमें यह याद रखने के लिए समस्या को हल करने की कोशिश करनी चाहिए कि गलतफहमी हमारे
मतभेदों का मुख्य कारण
है, प्यार प्यार को मजबूर करता
है और ताकत समर्थवान को
शांत करती है। हमें बेहतर आपसी ज्ञान और सहानुभूति से गलतफहमी के कारणों को दूर
करने का प्रयास करना चाहिए। हमें देशभक्त के अटूट प्रेम को अपने मुसलमान भाई
तक पहुंचाना चाहिए, हमेशा
याद रखना कि उसमें भी नारायण वास करते हैं और उन्हें भी हमारी माँ ने अपनी छाती में एक स्थायी
स्थान दिया है; लेकिन हमें स्वार्थभरी कमजोरी और कायरता के
कारण उनके
साथ झूठ या चापलूसी करना
बंद कर देना चाहिए। हम मानते हैं कि समस्या से निपटने का यही एकमात्र व्यावहारिक
तरीका है। एक राजनीतिक प्रश्न के रूप में हिंदू-मुसलमान समस्या हमें बिल्कुल भी
दिलचस्पी नहीं है, एक
राष्ट्रीय समस्या के रूप में यह सर्वोच्च महत्व की है। हम अपने पाठकों के सामने
मोहम्मद और इस्लाम को एक नई रोशनी में रखना, मुस्लिम इतिहास और सभ्यता के न्यायपूर्ण
विचारों को फैलाना, हमारे
राष्ट्रीय विकास में मुसलमान की जगह की सराहना करना और उसके सांप्रदायिक जीवन के
सामंजस्य के साधनों की सराहना करना अपने काम का एक मुख्य हिस्सा बनाना चाहते हैं।
अपनों के साथ, हमारे रास्ते में आने वाली
कठिनाइयों को नज़रअंदाज़ नहीं करते बल्कि भाईचारे और आपसी समझ की संभावनाओं का
अधिकतम लाभ उठाते हैं। बौद्धिक सहानुभूति केवल आकर्षित कर सकती है, हृदय की सहानुभूति से ही एकता हो सकती है। लेकिन एक दूसरे
के लिए अच्छी तैयारी है।" CWSA खण्ड 08 पृष्ठ 31
संविधान के अंतिम तीन भाग में हिमालय, रेगिस्तान और हिन्द महासागर का चित्र मिलता है।
एक
राष्ट्र के लिए क्या है? हमारी मातृभूमि क्या है? यह न तो पृथ्वी का टुकड़ा है, न
वाणी की आकृति है, न ही मन की कल्पना है। यह एक शक्तिशाली शक्ति है, जो राष्ट्र को
बनाने वाली सभी लाखों इकाइयों की शक्तियों से बनी है, जैसे भवानी महिषा-मर्दिनी
सभी लाखों देवताओं की शक्तियों से उत्पन्न हुई, जो एक बल के एक द्रव्यमान में
एकत्रित और एकता में बंधी हुई थी। जिस
शक्ति को हम भारत, भवानी भारती कहते हैं, वह तीन सौ करोड़ लोगों की शक्तियों की
जीवंत एकता है; लेकिन वह निष्क्रिय है, तमस के जादू के घेरे में कैद है, अपने
बेटों की आत्मग्लानि जड़ता और अज्ञानता। हमने तमस से छुटकारा पाने के लिए भीतर के
ब्रह्मा को जगाना है। CWSA खण्ड 06-07 पृष्ठ 83
सूर्य प्रताप सिंह राजावत ,अधिवक्ता
सचिव श्री अरविन्द सोसाइटी राजस्थान
वास्तव के धरातल पर एकता जन्मती है, पाखंड की भूमिका तो विभाजन की ओर ले जाती है, इसे इस लेख में श्रीअरविंद के कथनों से प्रतिपादित करना, समयोचित है।
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