भारतीय क्रान्तिकारी हलचल के पुरोधा --श्रीअरविन्द

 


भारतीय क्रान्तिकारी हलचल के पुरोधा --श्रीअरविन्द

श्रीअरविन्द का राजनैतिक कार्य-कलाप-1902 से 1910-आठ वर्षों तक चला। पहले चार साल उन्होंने परदे के पीछे रह कर कार्य किया, यानी, अपने सहकर्मियों के साथ स्वदेशी-आन्दोलन ¼Indian Sinn Fein½ की शुरूआत में हिस्सा लिया, और जब बंगाल का आन्दोलन शुरू हुआ तो उस हड़कम्प ने उन्हें खुला न्योता दिया कि वे इण्डियन नैशनल कांग्रेस के नरपन्थी के सिद्धान्त को अपना कर, सामने प्रकट होकर सीधा राजनीति में कूद पड़ें। 1906 में वे इसी उद्देश्य से बंगाल आये और उस नयी पार्टी से जुड़ गये जिसे हाल ही में कांग्रेस ने रूप दिया था, जिसमें लोगों की संख्या कम थी और जो अभी तक अपने प्रभाव में प्रबल हुई थी। इस पार्टी का राजनैतिक सिद्धान्त असहयोग आन्दोलन से एकदम भिन्न था, कांग्रेस की वार्षिक सभा में नरमपन्थी नेताओं के साथ इनकी कुछ झड़पें भी हुई थीं.... श्रीअरविन्द ने बंगाल में इस दल के नेताओं को समझाया कि वे अखिल भारतीय पार्टी के रूप में खुले तौर पर सामने आयें, अपना निश्चित और चुनौतीभरा कार्यक्रम प्रस्तुत करें, उनका सुझाव था कि वे लोकप्रिय मराठा नेता तिलक को पार्टी का अध्यक्ष बनायें और उस समय के प्रभावी, नरमपन्थियों (सुधारकों या उदारवादियों) यानी, पुराने राजनेताओं के गुटतन्त्र पर प्रहार कर, कांग्रेस तथा देश को उनके पंजे से छुड़ा लें। नरमपन्थियों और राष्ट्रवादियों के बीच (जिन्हें उनके विरोधी चरमपन्थी कहा करते थे) यही ऐतिहासिक संघर्ष था जिसने दो साल के अन्दर भारतीय राजनीति का चेहरा ही पूरी तरह बदल डाला।

नयी जन्मी राष्ट्रवादी पार्टी ने स्वराज (स्वतन्त्रता) को लक्ष्य के रूप में सामने रखा, जब कि नरमपन्थियों की सुदूर आशा थी कि धीरे-धीरे सुधार के साथ-भले उसमें एक सदी लगे या दो लगें-अपनी औपनिवेशिक सरकार हो।... नयी पार्टी का मन्त्र था-आत्म-निर्भरता, एक तरपफ उसने राष्ट्र की शक्तियों की प्रभावकारी व्यवस्था को लक्ष्य बनाया और दूसरी तरफ सरकार की नीति के साथ पूरी तरह से असहयोग का डंका पीट दिया।

ब्रिटिश तथा विदेशी चीजों का बॉयकॉट, उनकी जगह स्वदेशी उद्योगों की स्थापना, ब्रिटिश-शासन-प्रणाली को नकार कर अपने मध्यस्थों अथवा पंचों को बिठाना, सरकारी यूनिवर्सिटी और कॉलेजों का बहिष्कार करके राष्ट्रीय कॉलेज तथा विद्यालय खड़ा करने की पूरी योजना बना कर उसे लागू करना, समाज में ऐसे युवाओं का दल बनाना जो पुलिस तथा देश की सुरक्षा का कार्यभार संभाल लें, अगर प्रतिरोध करना हो तो पीछे हटें। श्रीअरविन्द को आशा थी कि वे कांग्रेस को अपने हाथ में लेकर उसे एक सुव्यवस्थित राष्ट्रीय कार्य का सीधा केन्द्र बना देंगे, यानी, राष्ट्र के अन्दर एक पूरा अनौपचारिक राष्ट्र कार्य करेगा, जो स्वतंन्त्रता प्राप्त होने तक जी-जान से स्वतन्त्रता-संग्राम में जुटा रहेगा। उन्होंने अपनी पार्टी को इस दिशा में बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया, साथ ही नव-स्थापित दैनिक पत्र-बन्दे मातरम्-को आर्थिक तथा अन्य सभी दृष्टियों से अपना समर्थन करने को कहा। उस समय वे उसके कार्यकारी सम्पादक थे, वस्तुतः, इसके आरम्भ, यानि 1907 से हीबन्दे-मातरम्का अथ से इति तक सारा कार्यभार वे ही संभाले हुए थे, और सारे भारत में इसका प्रसार हो रहा था।(CWSA VOL 36)

 बन्दे मातरम् पत्रिका में डॉक्ट्रिन आफ पैसिव रेसिस्टेंस (निष्क्रिय प्रतिरोध) प्रकाशित हुआ। जिसने सम्पूर्ण भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन को एक नई दिशा दी। निष्क्रिय प्रतिरोध के अरविन्दीय चिन्तन में चार-पांच मुद्दे बहुत ही स्पष्ट उभर कर सामने आते हैं- प्रतिरोध वहीं चल सकता है जहां शासन वैधानिक छल-छद्म के द्वारा अपना बर्बर चेहरा छिपाये हुए जन-आन्दोलनों को कुचलने की साजिश करता है। जहां इस प्रकार की स्थिति हो यानी सत्ता मानवता और विधान का सहारा या आवरण भी नहीं रखना चाहे वहां निष्क्रिय प्रतिरोध व्यर्थ है।  यह प्रतिरोध गैरवाजिब कानूनों की अवज्ञा और विदेशी माल के बहिष्कार को मुख्य कार्यक्रम मानता है।  इस आन्दोलन में धोखा देने वाले गद्दारों का सामाजिक बहिष्कार होना चाहिए। कानून तोड़ने वाले को हमेशा साहस और प्रसन्नता के साथ जेल जाने को तैयार रहना चाहिए।  यदि सत्ता निरंकुश और आमनवीय हो जाये तो निष्क्रिय प्रतिरोध छोड़ देना चाहिए और सक्रिय प्रतिरोध की तैयारी करनी चाहिए। (उत्तरयोगी श्री अरविन्द - एस पी सिंह ) सक्रिय प्रतिरोध की योजनाभवानी मंदिरमें मिलती है।

श्रीअरविन्द अलीपुर बम-केस के षड्यन्त्र में पकड़े गये थे, उनके ऊपर यह आरोप भी लगा था कि वे अपने भाई बारीन्द्र के नेतृत्व में चल रहे क्रान्तिकारी दल में सक्रिय रूप से भाग ले रहे थे, लेकिन कोई भी ठोस सबूत मिलने के कारण उन्हें मई 1909 में रिहा कर दिया गया। फरवरी 1910 में गुप्त एकान्तवास के लिए वे  चन्दनगर चले गये तथा अप्रैल के प्रारम्भ में फ्रेंच-भारत स्थित पॉण्डिचेरी गये।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान श्रीअरविन्द ने आध्यात्मिक शक्तियों का प्रयोग किया। श्रीअरविन्द के अनुसार द्वितीय विश्वयुद्ध दो वैश्विक ताकतों के बीच में युद्ध था जो कि मानवता के भविष्य को नियंत्रित करना चाहते थे। द्वितीय विश्वयुद्ध पृथ्वी पर दो सभ्यताओं के बीच की जंग था। 1942 में क्रिप्स मिशन के प्रस्ताव की जानकारी मिलने पर श्रीअरविन्द ने महात्मा गांधी और पण्डित नेहरू को शिवराव के माध्यम से संदेश भेजा कि क्रिप्स मिशन के प्रस्ताव को बिना किसी शर्त के स्वीकार कर लेना चाहिए। इसी प्रकार राजगोपालाचारी, डॉ. मुंजे को भी टेलिग्राम भेजा। श्री राजगोपालाचारी श्रीअरविन्द के प्रस्ताव से सहमत थे परन्तु सार्वजनिक रूप से इसका समर्थन नहीं करने के कारण उन्होंने कांग्रेस वर्किंग कमेटी से त्यागपत्र दे दिया। इन सभी घटनाओं को टाइम्स आफ इण्डिया ने एम.सी. देसाई द्वारा लिखा पत्र 29 सितम्बर 1942 को छपा जिसका शीर्ष था "Complex of Dependency" जिसमें उस समय के वातावरण के बारे में कहा गया कि केवल पाण्डिचेरी से श्रीअरविन्दघोष द्वारा यथार्थवादी निर्णय लेकर इसकी घोषणा भी की। महात्मा गांधी के अव्यावहारिक आदर्शवाद पर निर्भरता छोड़ देश के जिम्मेदार लोगों को आम भारतीय को यह समझाने की आवश्यकता है कि क्रिप्स मिशन के स्वीकार करने में भारत का हित सर्वोपरि रहेगा।

इसी प्रकार श्रीअरविन्द द्वारा 15 जून 1945 में वैवेल प्लान और 24.03.1946 को केबिनेट मिशन प्रस्ताव पर श्रीअरविन्द ने अपने विचार प्रकट किए थे। 16 दिसम्बर 1946 को संविधान सभा के सदस्य सुरेन्द्र मोहन घोष के साथ बंगाल और आसाम की समस्याओं के बारे में पत्र लिखा मिलता है।

क्रिप्स मिशन के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करने के कारण भारत को अखण्ड भारत का विभाजन के रूप में किमत चुकानी पड़ी। 15 अगस्त 1947-श्रीअरविन्द के 75वें जन्मदिवस पर भारत को स्वाधीनता प्राप्त हुई।ऑल इण्डिया रेडियोसे श्रीअरविन्द के एक सन्देश का प्रसारण किया गया जिसमें श्रीअरविन्द ने अपने पांच संकल्पों के बारे में बताया जिसमें पहले संकल्प था-भारत विभाजन का विरोध।  

15 अगस्त 1947 का संदेश महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि इसमें अखंड भारत के बारे  में स्पष्ट रूप से लिखा है कि उनका प्रथम संकल्प है भारत के विभाजन को मात्र अंतरिम अस्थाई रुप से मानना।

 "यह आशा करनी चाहिए कि इस तय किए गए विभाजन को पत्थर की लकीर नहीं मान लिया जाएगा और इसे एक काम चलाउ और अस्थाई रूप से बढ़कर और कुछ ना माना जाएगा क्योंकि यदि यह कायम रहे तो भारत भयानक रूप से दुर्बल और अपंग तक हो सकता है। गृह कलह का होना सदा ही संभव बना रह सकता है। नए आक्रमण और विदेशी राज का हो जाना तक संभव हो सकता है। भारत की आंतरिक उन्नति और समृद्धि रुक सकती है। राष्ट्र के बीच उसकी तिथि दुर्बल हो सकती है। उसका भविष्य कुंठित यहां तक कि व्यर्थ भी हो सकता है। यह नहीं होना चाहिए। देश का विभाजन अवश्य दूर होना चाहिए हमें आशा है कि यह कार्य स्वाभाविक रूप से ही हो जाएगा।  केवल शांति और मेल मिलाप की बल्कि मिलजुल कर काम करने की भी आवश्यकता को उत्तोत्तर समझ लेने तथा मिलजुल कर काम करने के अभ्यास और उनके लिए साधनों को उत्पन्न करने से संपन्न हो जाएगा। इस प्रकार अंत में एकता चाहे किसी भी रूप में  सकती है। उस उसके ठीक-ठाक रूप का व्यवहारिक महत्व भले ही हूं पर कोई प्रधान महत्व नहीं परंतु चाहे किसी भी उपाय से हो चाहे किसी भी प्रकार से हो विभाजन अवश्य हटना चाहिए। एकता अवश्य स्थापित होनी चाहिए और स्थापित होगी ही क्योंकि भारत के भविष्य की महानता के लिए यह आवश्यक है"

सूर्य प्रताप सिंह राजावत ,अधिवक्ता 

सचिव श्री अरविन्द सोसाइटी राजस्थान 


 

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