​ भारत के "स्वराज" की यात्रा - श्री अरविन्द के अलोक में



भारत के
"स्वराज" की यात्रा - श्री अरविन्द के अलोक में

भारतीयसंविधान  में सम्राट अशोकगुप्त काल की कलाउडीसा की मूर्तिकलाराजा विक्रमादित्य का दरबारनटराजभागीरथ का तपनालंदा का चित्रण प्राचीन भारत की याद दिलाते है प्राचीन भारत  के बारे में श्रीअरविन्द लिखते है-

 ‘‘जब  प्राचीन भारत  की ओर देखते है तो सर्वत्र एक विराट सिसृक्षाकभी भी खाली  होने वाले जीवन का आनन्द और उसकी अकल्पनीय रचनाओं का प्रयत्न हमें आश्चर्यचकित कर देता है। कम से कम तीन हजार वर्षों तक निश्चय ही यह अवधि और लम्बी हो सकती हैवह निरन्तरभरपूर मात्रा मेंउदारखर्ची के साथअनन्त पहलुओंढंग और ढर्रों में बिखरेलोकतंत्रराज्यसाम्राज्यदर्शनविश्व प्रक्रिया के सिद्धांत,

 विज्ञान मत-मतान्तरकला और काव्यना प्रकार के स्मारकमहल-मंदिरजन-कल्याण के कार्यजातियोंसमाजधार्मिक शास्त्रविधाननियमकर्मकांडभौतिक विज्ञानमनोविज्ञान तथा योगपद्धतियोंराजनयशास्त्रव्यवस्था और शासन के सिद्धान्तोंआत्मिक और सांसरिक कलाओंउद्योग धन्धोंव्यापार और उत्तम कला की वस्तुओं का निर्माण करता रहा। जाने यह सूची कितनी लम्बी हो सकती है और प्रत्येक क्षेत्र में आपको सक्रियता का ज्वार उमड़ता दिखेगा। वह रचता है। रचता जाता हैऔर थकता नहींउसे कहीं इसका जैसे अंत ही नजर नहीं आताउसे सुस्ताने के लिए  स्थान चाहिए  समय।’’ (CWSA-20)

यूरोप के कदम जब भारत में पड़े तब मध्यकालीन भारत में विदेशी संस्कृति  के टकराव के कारण भारत क्षीण अवस्था में पहुंच चुका था, इस सम्बन्ध में श्रीअरविन्द भारत के पतन के तीन कारण बताते है 1. प्राणिक शक्ति का हस, जीवन में आनन्द और रचनात्मक प्रतिका का बुझना, 2. प्राचीन बौद्विकता का रूद्ध होना और वैज्ञानिक तथा समीक्षात्मक जागरूक मानस की मूर्च्छा, 3. आध्यात्मिकता का मृत न होते हुए भी जीवन को तेजोदीप्त करने के कार्य से अलग हो जाना। (उत्तरयोगी श्री अरविन्द- एस पी सिंह )

श्री अरविन्द मानते है कि ​हर राष्ट्र की एक सामूहिक आत्मा होती हैजो कि दिव्य विधान के अनुसार नियत कार्यों को सम्पादित करने के लिए आदेशित है। 
अनेकता में एकता के सूत्र में संसार का अस्तित्व है। अतः मात्र एकरूपता उतनी ही असंगत है जितना कि बहीमुखीता से एकता के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता। अतएव राष्ट्रवाद मानवता के लिए अत्यंत आवश्यक है।  विभिन्न राष्ट्रों की विशिष्ट चेतना  एवं  अखंडता के बारे में श्री अरविन्द लिखते हैं कि भारत को आध्यात्मिकताअमरिका को वाणिज्य ऊर्जाइंग्लैण्ड को व्यवहारिक बौधिकताफ्रांस को स्पष्ट तार्किकताजर्मनी को मिमांसात्मक प्रवीणतारूस को भावनात्मक प्रचण्डता आदि 

अतः  भारतीय पुनर्जागरण पर श्री अरविन्द तीन आवश्यक कार्य बताते हैं सबसे आवश्यक कार्य बताया -पुराने आध्यात्मिक ज्ञान को प्राप्त करना  , दूसरा कार्य बताया इस आध्यात्मिकता को दर्शन के नए रूपों में प्रवाहित करना जैसे -साहित्य, कला, विज्ञान और आलोचनात्मक ज्ञान और तीसरा कार्य  भारतीय आलोक में आधुनिक समस्याओं से निपटने के लिए आध्यात्मिकता   का एक बड़ा संश्लेषण तैयार करने का प्रयास

 भारत की  स्वराज  की मांग पर श्री अरविन्द लिखते है ; (अप्रैल 1907 ) ‘‘हमारी साम्प्रतिक समस्या तुरन्त बौद्धिक या पूर्णतः सब प्रकार से सभी चीजों को जाननेवाला राष्ट्र बनने की नहीं है, न तो धनी और औद्योगिक बनने की है, बल्कि अपने को राष्ट्र के रूप में मृत्यु-मुख में जाने से बचाने की है, इस श्वेत संत्रास से बचकर अपने अधिकारों की दृढ़तापूर्वक रक्षा करते हुए जीवित रहने की है।

बन्दे मातरम् पत्रिका में डॉक्ट्रिन आफ पैसिव रेसिस्टेंस (निष्क्रिय प्रतिरोधप्रकाशित हुआ

 जिसने सम्पूर्ण भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन को एक नई दिशा दी। निष्क्रिय प्रतिरोध आन्दोलन की सीमा पर भी हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं - ‘‘जब तक शासन की प्रतिक्रिया शान्तिपूर्ण ढंग की रहती है और लड़ाई के नियमों के भीतर कार्य चलने दिया जाता है, निष्क्रिय प्रतिरोध निश्चय ही शान्त रहेगा। किन्तु इससे भिन्न स्थिति आने पर निष्क्रियता को एक क्षण के लिए भी निष्क्रिय रहने की जरूरत नहीं है। अमानुषिक अवैधानिक अत्याचारों के आगे झुकना या समर्पण कर देना, देश की वैधानिक व्यवस्था के नाम पर अपमान और गुण्डागर्दी सह लेना कायरता है और देश के पौरूष को पतित करना है, यह कार्य हमारे, अपने और मातृभूमि के भीतर निहित देवत्व का अपमान है।(बंदेमातरम)

श्री अरविन्द  का उत्तरपाड़ा भाषण (मई 1909 ) भारतीय स्वराज और विश्व कल्याण को समझाता है  -"...( सनातन धर्म)  यही वह धर्म है जिसका लालन-पालन मानव-जाति के कल्याण के लिये प्राचीन काल से इस प्रायद्वीप के एकांतवास में होता आ रहा है। यही धर्म देने के लिये भारत उठ रहा है। भारतवर्ष, दूसरे देशों की तरह, अपने लिये ही या मजबूत होकर दूसरों को कुचलने के लिये नहीं उठ रहा। वह उठ रहा है सारे संसार पर वह सनातन ज्योति डालने के लिये जो उसे सौंपी गयी है। भारत का जीवन सदा ही मानव-जाति के लिये रहा है, उसे अपने लिये नहीं बल्कि मानव जाति के लिये महान् होना है।..."

5 नवंबर 1948  , 6 दिसंबर 1948 ,19 नवंबर 1949 ,25 नवंबर, 1949 को संविधान सभा ने श्री अरविन्द को स्मरण किया था . 31अगस्त  1949 को श्री अरविन्द से प्रेरणा लेते हुए     के वी  कामथ कहते हैं कि  पश्चिम कुछ प्रकाश और मार्गदर्शन के लिए पूर्व की ओर मुड़ रहा है, और यदि  पश्चिम विफल हो जाता है तो दुनिया बर्बाद हो जाएगी भारत को पश्चिम की भौतिकवादी संस्कृति  के पीछे नहीं भागना चाहिए जीवन स्तर बढ़ाने के लिए सब ठीक है , लेकिन केवल भौतिकवादी बनना ही जीवन में सब कुछ नहीं है। दुनिया भारत की तरफ देख रही है।   दुनिया को प्रकाश दिखाने  का सही समय आ गया है

वैदिक काल से 21वीं सदी तक के इतिहास में उतार-चढ़ाव का विश्लेषण भारतीय स्वराज का अभिन्न अंग रहेगा। इसी क्रम में हम कह सकते है कि धर्मकर्मयज्ञ का सही ज्ञान ही भारत  का आधार हो सकता है।षड़दर्शन इस बात का प्रमाण है कि सत्य के पुर्नजन्म को विभिन्न द्वारों से भारत ने स्वागत किया है। छह दर्शन समान्तर रहे है। सभी की विशिष्ठता है। भारत ने सभी को स्वीकारा है। किसी भी दर्शन के इतिहास में पुर्नजागरण का पुनरूत्थान को कारण नहीं माना। बल्कि सनातन सत्य की अभिव्यक्ति मात्र मानकर ‘‘एको अहंद्वितीयो नास्ति’’ को ही बार-बार स्थापित किया है।

भारतीय  संस्कृति  की  आधारशीला भारत की आध्यात्मिकता है जिसके कारण संश्लेषणएकीकरणआत्मसात्करण एक स्वभाव के रूप में सहज रूप से भारत की हवा में महसूस की जा सकती है। दूसरे शब्दों में कहे तो भारत की पाचन शक्ति अद्वितीय है।

भारत के नीति  वाक्य 'सत्यमेव जयते ' और सुप्रीम कोर्ट का आदर्श वाक्य ' यतो धर्मस्ततो जय ' पर समग्र चिंतन भारत के स्व का ज्ञान कराता है .भारत की 75 वी स्वतंत्रता दिवस और श्री अरविन्द के 150 वी जयंती पर मनन चिंतन की आवशयकता है कि बंदेमातरम पत्रिका, उत्तरपाड़ा भाषण , 15 अगस्त के श्री अरविन्द के सन्देश के अनुरूप आज़ाद भारत के स्वराज की यात्रा किस दिशा में जा रही है

सूर्य प्रताप सिंह राजावत ,अधिवक्ता 

सचिव श्री अरविन्द सोसाइटी राजस्थान 

 


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