आध्यात्मिक राष्ट्रवाद - अखंड भारत की आधारशीला

 

श्री अरविन्द आश्रम के खेल के मैदान में अखण्ड भारत का चित्र बना हुआ है जिसको समझने के लिए यह आवश्यक है कि उस चित्र का भौतिक अर्थ एवं उसके भाव को समझे। जिसके लिए श्री अरविन्द के आध्यात्मिक राष्ट्रवाद को समझना आवश्यक है।

जब राष्ट्रवाद की बात होती है तो अक्सर एक जाति, एक भाषा, एक धर्म की एकरूपता के लक्षण को अनिवार्य बताया जाता है, जो कि एक पश्चिमी सोच है। परन्तु इस प्रकार के राष्ट्रवाद की सोच को श्री अरविन्द खण्डन करते हैं, वे वन्देमातरम् पत्रिका में लिखते है कि जाति, भाषा धर्म में विभिन्नता होने के बावजूद लोगों में राष्ट्रीय एकता का भाव रहता है। 

भारत में उस एकता के सूत्र का आधार है भारतीय संस्कृति। वर्ष 1909 में उत्तरपाड़ा के भाषण में श्री अरविन्द ने स्पष्ट रूप से कहा था कि भारत की राष्ट्रीयता है उसकी आध्यात्मिकता। इस प्रकार श्री अरविन्द के आध्यत्मिक राष्ट्रवाद की संकल्पना ही भारतीय राष्ट्रवाद है। इसी क्रम में श्री अरविन्द बताते हैं कि हर राष्ट्र की एक सामूहिक आत्मा होती है, जो कि दिव्य विधान के अनुसार नियत कार्यों को सम्पादित करने के लिए आदेशित है। श्री अरविन्द चेतावनी देते हैं कि जिस प्रकार व्यक्ति के अहंकार में दोष होते है, जबकि व्यक्ति की आत्मा दिव्य होती है, उसी प्रकार राष्ट्रीय अहंकार के अपने दुर्गुण है, जिससे सावधान रहने की आवश्यकता है। व्यक्ति की विशिष्टता को अनुशासन के लिए नहीं दबाया जाना चाहिए बल्कि सामाजिक स्वर संगति में बहुत ही सहजता से उसे गोथने की जरूरत है। इसी प्रकार राष्ट्रीय सामूहिक विशिष्टता को संजोना एवं पल्लवित करना होगा जिससे वह मानव जाति के विरोधी हो। प्रत्येक मानव समूह की पृथक सांस्कृतिक विशेषताए होती है जो कि मूल्यवान होती है। वे तब तक उभर नहीं सकती जब तक की उन्हें अलग से विकसित होने का मौका नहीं मिले।



अनेकता में एकता के सूत्र में संसार का अस्तित्व है। अतः मात्र एकरूपता उतनी ही असंगत है जितना कि बहीमुखीता से एकता के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता। अतएव राष्ट्रवाद मानवता के लिए अत्यंत आवश्यक है। श्री अरविन्द लिखते हैं कि राष्ट्रवाद, अन्तर्राष्ट्रवाद एक-दूसरे के विरोधी नहीं बल्कि पूरक है। क्योंकि अन्तर्राष्ट्रवाद में हर राष्ट्र अपनी अद्वितीयता से दूसरे को समृद्ध कर सकता है। परन्तु इसके लिए यह नितान्त आवश्यक है कि सर्वप्रथम हर राष्ट्र वह प्रवीणता प्राप्त करें जिसके लिए उसकी सामूहिक चेतना उन्नीलित होकर विश्व में अवतरित हो। विभिन्न राष्ट्रों की विशिष्ट चेतना  एवं  अखंडता के बारे में श्री अरविन्द लिखते हैं कि भारत को आध्यात्मिकता, अमरिका को वाणिज्य ऊर्जा, इंग्लैण्ड को व्यवहारिक बौधिकता, फ्रांस को स्पष्ट तार्किकता, जर्मनी को मिमांसात्मक प्रवीणता, रूस को भावनात्मक प्रचण्डता आदि को मानव जाति की कल्याण, समृद्धि और प्रगति के लिए विकसित करने की आवश्यकता है। सार यह है कि धरती माता विभिन्न राष्ट्रों के रूप में स्वयं को उत्तरोतर अभिव्यक्त कर रही है। संयुक्त राष्ट्र के गठन को विश्व सरकार के रूप में उसी दिशा में बढ़ता कदम देखा जाना चाहिए।

अतः अखंड भारत में वसुदेव कुटुंबकम के बीजों का प्रकाश है, जहां सभी राष्ट्रों को उनकी विशेषता के आधार पर किसी का समझौता नहीं करना चाहिए।अखंड  भारत संकुचित चिंतन नहीं बल्कि जगत का वह सत्य है जिसके आधार में वैदिक खोज का सार है, कि सृष्टि एक ही परम सत्ता की अभिव्यक्ति  है.पार्थिव  जगत में भारत के बारे में श्री अरविन्द  का 15 अगस्त 1947 का संदेश महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि इसमें अखंड भारत के बारे  में स्पष्ट रूप से लिखा है कि उनका प्रथम संकल्प है भारत के विभाजन को मात्र अंतरिम अस्थाई रुप से मानना।

 "यह आशा करनी चाहिए कि इस तय किए गए विभाजन को पत्थर की लकीर नहीं मान लिया जाएगा और इसे एक काम चलाउ और अस्थाई रूप से बढ़कर और कुछ ना माना जाएगा क्योंकि यदि यह कायम रहे तो भारत भयानक रूप से दुर्बल और अपंग तक हो सकता है। गृह कलह का होना सदा ही संभव बना रह सकता है। नए आक्रमण और विदेशी राज का हो जाना तक संभव हो सकता है। भारत की आंतरिक उन्नति और समृद्धि रुक सकती है। राष्ट्र के बीच उसकी तिथि दुर्बल हो सकती है। उसका भविष्य कुंठित यहां तक कि व्यर्थ भी हो सकता है। यह नहीं होना चाहिए। देश का विभाजन अवश्य दूर होना चाहिए हमें आशा है कि यह कार्य स्वाभाविक रूप से ही हो जाएगा। केवल शांति और मेल मिलाप की बल्कि मिलजुल कर काम करने की भी आवश्यकता को उत्तोत्तर समझ लेने तथा मिलजुल कर काम करने के अभ्यास और उनके लिए साधनों को उत्पन्न करने से संपन्न हो जाएगा। इस प्रकार अंत में एकता चाहे किसी भी रूप में सकती है। उस उसके ठीक-ठाक रूप का व्यवहारिक महत्व भले ही हूं पर कोई प्रधान महत्व नहीं परंतु चाहे किसी भी उपाय से हो चाहे किसी भी प्रकार से हो विभाजन अवश्य हटना चाहिए। एकता अवश्य स्थापित होनी चाहिए और स्थापित होगी ही क्योंकि भारत के भविष्य की महानता के लिए यह आवश्यक है"

भवानी मंदिर में श्री अरविंद ने अखंड भारत को मूर्त रूप में मां शक्ति के रूप में परिभाषित करते हैं।

"राष्ट्र क्या है? हमारी जन्मभूमि क्या है? यह जमीन का एक टुकड़ा नहीं है, तो एक शाब्दिक नाम है तो मन की कपोल कल्पना है। यह एक विराट शक्ति है जो लाखों लाख लोगों की शक्तियों का, जिनसे राष्ट्र बनता है, समुच्चय है जैसे महिषासुरमर्दिनि भवानी लाखों लाख देवताओं की सम्मिलित शक्ति से उदभूत हुई। वह शक्ति जिसे हम भवानी भारती कहते हैं वह तीस करोड़ व्यक्तियों की सम्मिलित शक्ति का जीवंतरूप है, पर वह निष्क्रिय तमस के जादुई चक्र में आबद्ध तथा अपने ही पुत्रों के स्वतः पसंद अज्ञान और जड़ता में कैद है। इस समस्या से छुटकारा पाने के लिए हमें अपने भीतर के ब्रह्म को जागृत करना है"

बंकिम का वंदे मातरम श्री अरविंद की मां शक्ति -अखंड भारत के बारे में विस्तृत रूप से गान  हैं।

"वंदे मातरम" का अंग्रेजी में अनुवाद श्री अरविंद के द्वारा किया गया था उसे ही प्राधिकृत माना गया है। स्वतंत्र भारत में  गणराज्य के लिए संविधान सभा के संप्रतिक में भारत का नक्शा अखंड भारत की याद दिलाता है जो कि केवल भौगोलिक इकाई है बल्कि सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक परंपरा का आश्वासन है भावी पीढ़ी के लिए।

 

Comments

Popular posts from this blog

भारत के मूल संविधान को नमन करते प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी -

Motto of Supreme Court of India -यतो धर्मस्ततो जयः