भारत का नीति वाक्य -सत्यमेव जयते

 

सत्यमेव जयते

भारत के राष्ट्र नीति वाक्य सत्यमेव जयते को आमजन के बीच सामूहिक चेतना में प्रवेश कराने का श्रेय भारतरत्न पं. मदन मोहन मालवीय को जाता है। सत्यमेव जयते का शब्दिक अर्थ है सत्य की जीत, यह मुण्डक उपनिषद से लिया गया है।

सत्यमेव जयते नानृतं

सत्येन पन्था विततो देवयानः।

येनाक्रमन्त्यृषयों ह्याप्तकामा

यत्र तत् सत्यस्य परमं निधानम्।।

मानव जाति की सबसे पुरानी अभिप्सा रही है, ईश्वर, प्रकाश, स्वतंत्रता और अमरता। जैसाकि श्रीअरविन्द ने दिव्य जीवन पुस्तक के प्रथम अध्याय में लिखा है। सत्य की खोज ही सनातन धर्म को परिभाषित करता है। सत्य की खोज यात्रा में कई पड़ाव आते है। जो जिस पड़ाव पर रूक जाता है वह उसे सत्य मान लेता है। उसकी चेतना के लिए वहीं उसका व्यक्तिगत सत्य बन जाता है। अतः चेतना के विकास के अनुपात में ही सत्य का साक्षात्कार होता है।

 इसी सिद्धांत को भगवान महावीर ने अनेकान्तवाद के सिद्धांत के माध्यम से तार्किक रूप से समझाने की कोशिश की है। इसी प्रकार वैदिक परम्परा में कहा गया है ‘‘एकम सद विप्र बहुधा वदंति"

इस समग्रता को सरल शब्दों में कहें तो

हो  जाकि रही भावना जैसी, प्रभु मूर्ति देखी तिन तैसी

इसी प्रकार

हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता, कहहि सुनहि बहुविधि सब सन्ता

सत्यमेव जयते को सरल शब्दों में कहा है

जैहिके जैहि पर सत्य सनहुं, सो तेहि मिलय कछु संदेहू

ऐसा सनातन धर्म का मानना है। इस प्रचलित परम्परा के कारण ही भारत में क्रमोत्तर नहीं बल्कि एक साथ छह दर्शन (षड़दर्शन-सांख्य-कपिल, योग-पतंजलि, न्याय-गौतम, वैशैषिक-कणाद, मिमांसा-जैमिनी और वेदांत-बादरयण) के साथ भारतीयों ने जीवन जीया है। जहां किसी एक के सत्य को दूसरे के सत्य पर थोपा नहीं गया है ही हिंसा के द्वारा दूसरे पर सत्य को स्वीकार करने का आग्रह किया गया है। यह परम्परा भारतीय जीवन शैली की विशिष्टता है। यहां सत्य और अहिंसा को साथ-साथ रखा है।

सत्य की यात्रा के लिए अभिप्सु को स्वधर्म के अनुसार योग का चुनाव करना होता है जिनमें प्रमुख है राजयोग, कर्मयोग और भक्तियोग। स्वधर्म और स्वगुणों के आधार पर सगुण निर्गुण ईश्वर को सनातन धर्म ने स्वीकार किया है। यह सत्य समाज में केवल आपसी भाईचारा बढ़ाता है बल्कि आपसी सम्मान और दूसरे को समान सम्मान भी देता है।

इतिहास साक्षी है कि सनातन धर्म के अतिरिक्त दूसरे धर्म, सम्प्रदाय, पंथ आदि द्वारा सत्य के साथ अहिंसा को एक सीमा के बाद स्वीकार नहीं किया है। इसी क्रम में अशोक स्तम्भ को राष्ट्रीय सम्प्रतिक के रूप में 26 जनवरी 1950 से गणतंत्र भारत में स्वीकार किया गया है। सम्राट अशोक भारत के उस कालखण्ड को स्मरण करता है जब भारत का सर्वाधिक भाग पर एक ही राजा का राज्य था। सम्राट अशोक द्वारा कलिंग के युद्ध के बाद बौद्ध धर्म को अपनाया जाना पश्चिम के लिए असहज है, परन्तु भारतीय मानस के लिए सम्राट अशोक का शांति और अहिंसा का मार्ग केवल श्रेष्ठ माना गया है परन्तु आदर्श भी स्थापित करता है। भारतीय मानस ने भीम के राजसी गुण और अर्जुन के भक्ति, स्वास्तिक गुणों के साथ धर्म के लिए अहिंसा, करूणा की कमजोरी का त्याग की तुलना में अर्जुन को स्वीकार किया है। यहीं अन्तर है भारतीय सभ्यता अन्य सभ्यताओं में।


    सत्य और धर्म को भारतीय परम्परा में एक दूसरे का पयार्यवाची भी माना है। "धर्म चक्र प्रवर्तनाय" संविधान सभा का नीति वाक्य रहा है। जो कि भगवान गौतम बुद्ध द्वारा आत्मसाक्षात्कार के बाद पहला उपदेश था। जिसका अर्थ है देश काल एवं परिस्थिति के अनुसार धर्म अभिव्यक्त होता है। भारतीय संस्कृति को समझने के लिए धर्म, ब्रह्म और कर्म के सिद्धांत को सर्वांगीण रूप से समझने की आवश्यकता है।

भारतीय संस्कृति, सभ्यता का इतिहास हजारों वर्ष पुराना रहा है अतः युग अनुसार सत्य-धर्म की जीत को समझने के लिए संविधान सभा ने कला के माध्यम से संविधान में चित्रण कर भविष्य के लिए संदेश छोड़ा है, जिसे समझने की आवश्यकता है। पहला चित्र वेद वैदिक काल का है।


वेदों के बारे में श्रीअरविन्द लिखते है ‘‘.

 ‘‘ इन हजारों-हजार वर्षों में जो कुद हम हिंदुओं ने किया है, चिंतन किया है तथा कहा है, हम जो कुछ हैं और जो कुछ बनने की चेष्टा करते हैं, उसे सब के मूल में प्रच्छन्न रूप से स्थित है हमारे दर्शनों का स्त्रोत, हमारे धर्मों का सुदृढ़ आधार, हमारे चिंतन का सार, हमारी आचारनीति और समाज का स्पष्टीकरण, हमारी सभ्यता का सांराश, हमारी राष्ट्रीयता को थामे रखने वाला स्तम्भ, वाणी की एक लघु राशी, अर्थात्् वेद। इस एक ही उद््गम से अनेकानेक रूपों में विकसित होने वाली असंख्य आयामी एवं उत्कृष्ट उत्पत्ति, जिसे हिंदु धर्म कहते हैं, अपना अक्षय अस्तित्व धारण करती हैं अपनी प्रशाखा ईसाई धर्म केसाथ ही बौद्ध धर्म भी इसी आदि स्त्रोत से प्रवाहमान हुआ। इसनेअपनी छाप फारस पर छोड़ी, फासरस के द्वारा यहूदी धर्म पर, और यहूदी धर्म द्वारा ईसाई धर्म तथा सूफीवाद से इस्लाम धर्म पर, बुद्ध के द्वारा यह छाप कन्फ््यूशीवाद पर, ईसा एवं मध्यकालीन सूफीवाद, यूनानी और जर्मन दर्शन तथा संस्कृत के ज्ञान द्वारा यह छाप यूरोप के विचार एवं सभ्यता पर पड़ी। यदि वेद होते तो विश्व की आध्यात्मिकता का विश्व के धर्म का, विश्व के चिंतन का ऐसा कोई भी भाग नहीं है जो वैसा होता जैसा कि वह आज है। विश्व की किसी भी अन्य वाक् राशी के विषय में ऐसा नही कहा जा सकता।‘‘

 

 इसके बाद रामायण महाकाव्य में सत्य की जीत के बारे में श्रीअरविन्द लिखते है -


"भारत में यह अन्तर परार्थवाद और अंहकार के बीच नहीं होता, बल्कि यह फर्क है निस्पृहता और इच्छा के बीच। एक परोपकारी अपने बारें में गहराई से सचेत रहता है और परमार्थ में वस्तुतः वह अपना अभिकर्ता बना रहता है इसी भावुकता की तप्त और बीमा गन्ध और पाखण्ड कारंग यूरोपियन परोपकारित से चिपका हुआ है। सच्चे हिन्दू के लिए अंह का भाव विश्रवबोध के साथ विलीन हो जाता है उसे अपने कर्तव्य का पालन करना है, उसे कोई अन्त नही पड़ता कि इससे दूसरों का या उसका हित साधन होता है। यदि  उसके कार्य में अधिकांशत : निजी स्वार्थ-साधन की अपेक्षा परोपकारी भाव दिखता है, तो यह इसलिए कि उसके कर्तवय निजी लाभ से दूसरों के लभ के अधिक अनुकूल हो रहे हैं। एक पुत्र के रूप में राम का कर्तव्य था आत्म त्याग अपना साम्राज्य छोड़कर एक भिक्षुक और एक सन्यासी बन जाना उन्होंने यह प्रसन्नतापूर्वक दृढ़ता के साथ किया। लेकिन जब सीता अपह्त हो गयी तब एक पति के रूप में उनका कर्तवय था अपहरणकर्ता से सीता का उद्धार करना और अगर रावण अपने कुकृत्य पर अड़ा रहे तो एक क्षत्रिय की तरह आगे बढ़ कर उसकी हत्या कर देना। इस कर्तव्य का पालन भी वे उसी अटल शक्ति से करते हैं जैसे पहले कर्तव्य का पालन किया था। वे सत्य के मार्ग से केवल इसलिए नही हटते कि यह उनके निजी स्वार्थ से मेल खाता है।"


इसी प्रकार कुरूक्षेत्र में गीता का चित्र संविधान में मिलता है। महाभारत के चरित्रों के बारे में श्रीअरविन्द लिखते है ."पाण्डवा भी वनवास और दारिद्रय को अपनाकर बिना एक शब्द बोले चले गये क्योंकि यह उनके सम्मान का सवाल था लेकिन कठिन परीक्षा समाप्त होने पर यद्यपि उन्होनें समझौते के लिए भरसक झुककर  कोशिश की, परन्तु दुर्योधन के समाने धराशायी नहीं हुए, क्योंकि एक क्षत्रिय के रूप में यह उनका कर्तव्य था कि वे संसार को अन्याय के राज्य से बचायें क्योंकि उन्ही की वजय से अधर्म राजय बना हुआ था। ईसाइयत और बौद्धधर्म यह यह सिद्धान्त कि चांटा मारने वाले के सामने अपना दूसरा गाल भी प्रस्तुत कर दो- जितना ही खतरनाक है, उतना ही अव्यावहारिक है। यूरोप में एक ओर क्राइस्ट और दूसरी और शैतान प्रेरित देह-सुख के बीच झूमा-झूमी का खेल चलात है इसमें देह-सुख और शैतान की ओर ही दीर्घ झुकाव होता हैय इससे यह सिद्ध होता है कि यह मिथ्या नैतिक भेदभाव है और इसमें एक ऐसे आदर्श का मात्र वाचिक उपदेश है जिसे मानव समुदाय पालन करने को तो इच्छुक हुआ, उसका पालन कर पाने की योग्यता ही उसमें थी। तटस्थ होकर निःस्वार्थ कर्तव्य का पालन सबसे समर्थ पौरूष की वीरगाथा है इसके विपरीत तमाचा मारने वाले के सामने दूसरा गाल प्रस्तुत कर देना कमजोर और कायर की अपर्कीर्ति कथा है। बच्चे और दुधमुंहों को मजबूरी में ऐसा करना पड़ सकता है, लेकिन दूसरों के लिए तो यह एक पाखण्ड है"

 अतः यह स्पष्ट है कि भारतीय परम्परा ने युगों के अनुसार धर्म के आचरण के बारे में केवल लिखा है बल्कि उन आदर्श की ओर बढ़ने और उन्हें जीवन में उतारने के लिए प्रेरित किया है। आदर्शों की सिद्धी के अभाव में आदर्शां के साथ समझौता नहीं किया।"सर्वधर्म समभाव" की नीति राज्य द्वारा अपनाई तो जा सकती है। परन्तु इसकी सफलता के लिए राज्य के प्रत्येक व्यक्ति-नागरिक को वैदिक परम्परा के सत्य को स्वीकार करना होगा-‘‘एकम सद विप्र बहुधा वदंति’’ अतः भारत के राष्ट्रीय नीति वाक्य सत्यमेव जयते के मनन, चिंतन को गम्भीरता से लेने की आवश्यकता है। सत्यमेव जयते का सही चिंतन एवं समग्र दर्शन भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता को समझने में सहायक है।

सूर्यप्रताप सिंह राजावत 


Comments

  1. बहुत महत्त्वपूर्ण लेखन और चिंतन

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  2. वाह, बहोत सुंदर ।

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