संविधान सभा का राजभाषा हिन्दी पर निर्णय
भारत में एक राष्ट्रभाषा का चिंतन सन् 1874 में आधुनिक भारत के सुधारक केशव चंद्र सेन की पत्रिका ‘‘सुलभ समाचार’’ में मिलता है। राष्ट्रभाषा के बारे में उपन्यास ‘‘आनन्द मठ’’ के लेखक बंकिम चंन्द्र द्वारा विस्तार से लिखा गया है। इसी क्रम में सन् 1906 में बंदेमातरम् पत्रिका में क्रांतिकारी श्रीअरविन्द के लेखो में आध्यात्मिक राष्ट्रवाद एवं विभन्न भाषा, जाती, पंथ के बावजूद भी राष्ट्रीयता की भावना कैसी बनी रहती है इसका वर्णन मिलता है। श्रीअरविन्द लिखते है कि राष्ट्र के लिए एक राजभाषा राष्ट्र के एकीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
हिंदी के उन्नति व प्रचार-प्रसारण के लिए नागरी प्रचारिणी सभा (सन् 1893) और हिंदी साहित्य सम्मेलन (सन् 1910) की अहम भूमिका रही। हिन्दी साहित्य सम्मेलन स्वतंत्रता आंदोलन के समान ही भाषा आंदोलन का साक्षी रहा है। पुरूषोत्तम दास टंडन को ‘सम्मेलन के प्राण’ के नाम से अभिहित किया। गांधी जी भी इस सम्मेलन से जुड़े और सन् 1917 में इंदौर की अध्यक्षता की। दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा का गठन सन् 1918 में महात्मा गांधी द्वारा किया गया। इसका उद्देश्य था दक्षिण भारत में हिन्दी प्रचार प्रसारण। उनके पुत्र देवदास गांधी इसके प्रथम प्रचारक बने। जीवन भर गांधी जी इस सभा के अध्यक्ष रहे।
भारत के विभाजन का सीधा प्रभाव कांग्रेस संसदीय दल द्वारा राजभाषा पर लिए निर्णय पर सीधा नजर आता है। संविधान सभा में कोई भी प्रस्ताव या प्रारूप संविधान सभा के समक्ष रखें जाने पहले उस पर कांग्रेस संसदीय दल में विचार विमर्श किया जाता था। 16 जुलाई 1947 को मतदान हुआ तो हिन्दी के पक्ष में 63 और हिन्दुस्तानी के पक्ष में 32 मत पड़ें। देवनागरी लिपि के पक्ष में 63 और विपक्ष में 18 मत थे। इसका परिणाम यह हुआ कि फरवरी 1948 में जब संविधान का प्रारूप परिचालित किया गया तो उसमें हिन्दी शब्द था, हिन्दुस्तानी (हिन्दी या उर्दू) शब्द हटा दिए गए थे। हिन्दुस्तानी से तात्पर्य है नागरिक के विकल्प पर हिंदी या उर्दू को देवनागरी या फारसी लिपि में लिखना। ‘द हिन्दू’ अखबार के 12 व 28 अगस्त 1949 के संस्करण में खबरों में यह स्पष्ट रूप से प्रकाशित था कि कांग्रेस संसदीय दल द्वारा सर्वसम्मति से हिन्दी को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया। इसी प्रकार ‘हिन्दुस्तान’ अखबार मे भी 12 अगस्त 1949 को भी यही खबर छपी थी (ग्रैंविल ऑस्टिन, दी इंडियन कांस्टिट्यूशन - कार्नर स्टोन आफ ए नेशन)।
संविधान सभा में संघ की राजभाषा के रूप में हिन्दी के बारे में कोई विवाद नहीं था। वाद विवाद का विषय एक तो अवधि जिसके द्वारा अंग्रेजी बनी रहेगी और दूसरी देवनागरी अंकों का प्रयोग को लेकर था।
भारतीय अंकों के अंतर्राष्ट्रीय रूप पर डॉ. पी. सुब्बारायन ने इंसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका का उद्धरण दिया ‘‘हमारे वर्तमान अंकों के बारे में, जो साधारणतया अरबी अथवा हिन्दू-अरबी अंक कहे जाते हैं, विभिन्न प्रकार के दावे किये गये हैं और प्रत्येक में कुछ न कुछ तथ्य है। यह कहा जाता है कि अरबों ने, अथवा ईरानियों ने, अथवा मिश्र निवासियों ने, अथवा हिन्दुओं ने इन अंकों को लिखना आरम्भ किया। व्यापारियों के बीच समागम होने के कारण ये चिह्न विभिन्न देशों में ले जाये गये। इसलिये यह सम्भव है कि हमारे अंक विभिन्न स्त्रोंतों से आये हों, किन्तु जिस देश में इनमें से अधिकांश अंक, प्रयोग में आते थे वह भारत है।’’
संस्कृत भाषा को भारत की राजभाषा बनाने के लिये पं. लक्ष्मीकांत मैत्र ने कहा : ‘‘अध्यक्ष महोदय, मैं इस उद्देश्य से यह संशेधन उपस्थित कर रहा हूं कि संस्कृत के अध्ययन से हमारे प्राचीन वैभव का पुरावर्त्तन हो। हमें अपना संदेश पश्चिम को भी सुनाना चाहिये। पश्चिम भौतिकवाद की सभ्यता को अपनाये हुये है। हमें पश्चिम को गीता का, वेदों का, उपनिषदों तथा तंत्रों का और चरक तथा सश्रुत आदि का संदेश सुनाना चाहिये। इन्हीं बातों के कारण संसार हमारा आदर करने लगेगा, न कि राजनैतिक वाद-विवादों अथवा वैज्ञानिक खोजों के कारण जो उनकी खोजों की तुलना में कुछ भी नहीं है। रताध्वस्त पश्चिमी देशों में नैतिकता तथा धार्मिक अथवा आध्यात्मिक जीवन भी विनिष्ट हो गया है। और व पथ प्रदर्शन के लिये आपकी ओर देख रहे हैं। स्थिति यह है और इस स्थिति में संसार आपसे संदेश चाहता है। आप अपने दूतावासों द्वारा विदेशों को क्या संदेश देने जा रहे हैं। वे नहीं जानते हैं कि आपके राष्ट्रीय कवि कौन हैं, आपकी भाषा क्या है और आपके पूर्वजों ने किन विषयों में आद्वितीय उन्नति की थी।’’
पं. लक्ष्मीकांत मैत्र ने संस्कृत को राजभाषा बनाने का प्रस्ताव रखा परन्तु व्यवहारिक दृष्टि से संस्कृत को लागू करने पर कठिनाई को स्वीकारा और सदन को बताया कि जिस प्रकार अंग्रेजी को लागू करने पर कठिनाई का सामना करना पड़ा था उसी प्रकार संस्कृत को भी भविष्य में भारत की राजभाषा बनाई जा सकती है इसके लिये उन्होने संविधान सभा को बताया : ‘‘इसी बीच मैं यह नहीं चाहता कि देश का प्रशासन अयोग्यता से होने लगे। इसलिये मैं यह चाहता हूं कि पन्द्रह वर्ष तक अंग्रेजी को ही देश की राज भाषा रहने दिया जाये। मैं यह जानता हूं कि जब मैं अन्यत्र अपने एक भाषण में इन्हीं विचारों को व्यक्त कर रहा था तो मेरी बड़ी आलोचना हुई थी। हिन्दी भाषी क्षेत्र के मेरे एक मित्र ने कहा, ‘‘ देखिये, मैत्र, आप अगले पन्द्रह वर्ष तक अंग्रेजी रहने देने के पक्ष में बड़े उत्साह से तर्क उपस्थित कर रहे हैं। आपका विचार क्या है? क्या आप उस दिन की प्रतीक्षा कर रहे हैं जब अंग्रेज वापस आ जायेंगे?’’ मैंने उनसे कहा कि हम अंग्रेजों से अंग्रेजों के प्रभुत्व से, क्रुद्ध थे। अंग्रेजी भाषा तथा संस्कृति से हमारा कोई द्वेष नहीं था। जब पिछली शताब्दी में अंग्रेज इस देश में पहले पहल आये तो अंग्रेजी भाषा को कोई नहीं समझा पाता था। लोग उसका एक शब्द भी नहीं जानते थे। यह कहा जाता है कि उन दिनों एक व्यापारिक संस्था में काम करने वाली बंगाली बाबू अपने अफसर के पास गया और उसने उससे कहा, ‘‘श्रीमान्, आज रथ यात्रा है, छुट्टी छुट्टी।’’ अफसर ने पूछा, ‘‘रथ क्या होता है?’’ अपनी टूटी फूटी अंग्रेजी में वह बाबू नहीं समझ सका कि रथ कैसा होता है और उसने कहा, ‘‘चर्च, चर्च, बुडन चर्च सर। जगन्नथ सिटिंग, रोप एंड पुल सर।’’ बेचारा यूरोपियन हक्का बक्का सा रह गया। आरम्भ में लोगों को इसी प्रकार की अंग्रेजी का ज्ञान था किन्तु बाद में राजा राम मोहन राय, केशव चन्द्र सेन, बंकिम चन्द्र, रमेश दत्त तथा अन्य लोगों ने अंग्रेजी भाषा पर पूर्ण अधिकार प्राप्त किया। कुछ ही वर्षों पश्चात् कुमारी तोरू दत्त, माइकेल मुधुसूदन दत्त, और अन्य लोगों ने अंग्रेजी भाषा में बहुत ही सुन्दर पद्य तथा गद्य की रचना की। ये रचनायें अंग्रेजी साहित्य में उत्कृष्ट गीति-काव्य समझी जाती हैं। इसी प्रकार आरम्भ में कुछ कठिनाई हो सकती है, किन्तु यदि आप परिश्रम करेंगे तो आप थोड़े ही समय में संस्कृत सीख सकते है। इस बीच वैज्ञानिक तथा उच्च कोटि की शिक्षा के लिये तथा न्यायपालिका के कार्य के लिये, भारत में अंग्रेजी ही प्रयोग में आयेगी।’’
संविधान सभा के सभापति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जी ने भाषा को लेकर हुए विवाद को बेहद ही सरल एवं सहज तरीके से समझाया ‘‘किन्तु हमें अपने मित्रों की भावनाओं का आदर करना है जो उसे चाहते थे, और मैं अपने सब हिन्दी मित्रों से कहूंगा कि वे इसे उस भावना से स्वीकार करें, इसलिये स्वीकार करें कि हम उनसे हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि स्वीकार करवाना चाहते है। और मुझे प्रसन्नता है कि इस सदन ने अत्यधिक बहुमत से इस सुझाव को स्वीकार कर लिया है। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि आखिर यह बहुत बड़ी रियायत नहीं है। हम उनसे हिन्दी स्वीकार करवाना चाहते थे और उन्होंने उसे स्वीकार कर लिया और हम उनसे देवनागरी लिपि को स्वीकार करवाना चाहते थे, वह भी उन्होंने स्वीकार कर ली। वे हमसे भिन्न प्रकार के अंक स्वीकार करवाना चाहते थे, उन्हें स्वीकार करने में कठिनाई क्यों होनी चाहिये ? इस पर मैं छोटा सा दष्टान्त देता हूं जो मनोरंजक होगा। हम चाहते है कि कुछ मित्र हमें निमंत्रण दें। वे निमंत्रण दे देते है। वे कहते है, ‘‘आप आकर हमारे घर में ठहर सकते हैं उनसके लिये आपक स्वागत है। किन्तु जब आप हमारे घर आयें तो कृपया अंग्रेजी चलन के जूते पहनिये, भारतीय चप्पल मत पहनिये जैसी कि आप अपने घर में पहनते हैं।’’ उस निमंत्रण को केवल इसी आधार पर ठुकराना मेरे लिये बुद्धिमत्ता नहीं होगी कि मैं चप्पल को नहीं छोड़ना चाहता। मैं अंग्रेजी जूते पहन लूंगा और निमंत्रण को स्वीकार कर लूंगा, और इसी सहिष्णुता की भावना से राष्ट्रीय समस्याएं हल हो सकती है।’’
अवधि जिसके द्वारा अंग्रेजी बनी रहेगी और दूसरी देवनागरी अंकों का प्रयोग पर मुंशी अयंगार सूत्र के आधार पर संविधान सभा ने 14 सितम्बर 1949 को राजभाषा हिन्दी को स्वीकार किया। यह निर्णय संविधान के वाद विवाद पुस्तक संख्या 7 खण्ड प्ग् (ख) की पृष्ठ संख्या 2329 पर स्पष्टरूप से अंकित है।
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