नागरिकता कानून संशोधन और सांविधानिक नैतिकता

नागरिकता कानून संशोधन और सांविधानिक नैतिकता
लोकतंत्र में बहस महत्वपूर्ण है। विचारों से अहसमति लोकतंत्र का हिस्सा है। चुनी हुई संसद द्वारा पेश किए गए बिल पर मर्यादित बहस स्वीकार्य है। बहस में ऐतिहासिक, कानूनी, सांस्कृति, धार्मिक, नैतिक, अंतराष्ट्रीय कानूनी के तर्क रखे जाते है। संसद में पेश करने पर प्रारूप आमजन एवं सांसदों के लिए पढने, समझने के लिए उपलब्ध रहता है। सिविल सोसायटी भी अपना पक्ष रखती है। मिडिया भी पक्ष, विपक्ष, विषय के विशेषज्ञ, सिविल सोसायटी को एक मंच पर लाकर लोगो को प्रस्तावित कानून के बारे में शिक्षित करने का प्रयास करता है। संसद में बिल पर वोटिंग होती है बहुमद मिलने पर राष्ट्रपति के अनुमोदन के बाद बिल कानून के रूप में राजपत्र में छपने पर एक निश्चित दिन से लागू किया जाता है। उल्लेखनिय है कि इस प्रक्रिया में न्याय पालिका की भूमिका कानून बनने के बाद आती है। जैसा कि सबको विदित है। नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 को पचास से ज्यादा रिटो के माध्यम से मा0 सर्वोच्य न्यायालय में चुनौती दी जा चुकी है। आज प्रकरण लम्बित है। जो भी निर्णय आएगा सबको सम्मानपूर्ण उसको आदर करना चाहिए। इस प्रक्रिया का आदर करना संविधान नैतिकता कहलाती है जैसा कि डॉ0 अम्बेडकर ने संविधान प्रारूप को पेश करते समय 04 नवम्बर 1948 में संविधान सभा में कहा था।
नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 में किसी भी प्रकार का कोई संशोधन नहीं किया गया जिसके कारण वर्तमान में किसी भी भारतीय (किसी भी धर्म के लोग) की नागरिकता प्रभावित होती हो। भारत का नागरिक होने के नाते बड़ा दुःख होता है कि संवैधानिक पदों पर बैठे लोग संशोधन 2019 के बारे में भ्रम, भय व असमजंस की स्थिति पैदा कर रहे है। यहीं नहीं बल्कि अधिनियम 2019 के विरोध में निकाली जा रही रैली या प्रदर्शनों में सार्वजनिक सम्पत्ति को भी नुकसान पहुंचा रहे है। कुछ जगह तो हिन्दू धार्मिक स्थलों पर तोड़फोड़ भी की गई है। सबसे अचरज की बात यह है कि संशोधन 2019 के विरोध में भारत के संविधान की उद्देशिका को पढ़ा जाता है और इसके बाद पढ़ने वालों का व्यवहार भारत के नागरिकों के दायित्वों के विपरीत मिलता है। सबसे चौकाने वाली बात तो यह है कि वर्तमान में विश्वविद्यालयों में भी संशोधन 2019 का विरोध पढ़े-लिखे पीएचडी धारी युवाओं द्वारा किया जा रहा है। यह इस बात का सूचक है कि आज का युवा लोकतांत्रिक व्यवस्था में मर्यादित रूप से भागीदार न बनकर सीधे ही औछी राजनीति का शिकार हो रहा है। प्रश्न यह है कि विश्वविद्यालयों में संशोधन 2019 पर वाद-विवाद होना चाहिए। तर्क के साथ दोनों पक्षों को बोला व सुना जाना चाहिए। परन्तु दुर्भाग्य है कि इस प्रकार की भौतिकता का प्रदर्शन कहीं नजर नहीं आ रहा है। 26 नवम्बर 1949 को डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने खेद प्रकट करते हुए कहा था कि विधायिका की अर्हताएं नहीं बना सकें। डॉ. अम्बेड़कर संविधान एवं तिरंगे को प्रदर्शनों में देखकर केवल यह विचार आता है कि क्या वाकई जो लोग प्रदर्शन में आए है, वे संशोधन 2019 के बारे में जानते है। क्योंकि अगर वे जानते होते तो कभी-भी इस प्रकार का प्रदर्शन नहीं करते।

सूर्य प्रताप सिंह राजावत
अधिवक्ता, राजस्थान उच्च न्यायालय, जयपुर

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