सीएम केरल का पत्र असंवैधानिक व तर्कहीन
सीएम केरल का पत्र असंवैधानिक व तर्कहीन
केरल प्रदेश के मुख्यमंत्री द्वारा 11 गैर भाजपा राज्यों के मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखा गया है। कोई भी मुख्यमंत्री किसी भी मुख्यमंत्री को चिट्ठी लिख सकता है, इसमें कोई नई बात नहीं है। पत्र को पढ़ने पर लगता है कि लिखने वाले ने जानबुझकर शब्दों को परिभाषित नहीं किया है। इसके दो कारण हो सकते है। एक तो विषयों को लेकर कोई गम्भीरता नहीं, सिर्फ लिखने के लिए संविधान, लोकतंत्र,
सेकुलरिज्म,
एनपीआर,
एनआरसी,
नागरिकता संशोधित कानून 2019 जैसे शब्दों को लिखा जाए कि सब खतरे में है।
लोकतंत्र की विशेषता है कि बहस में विरोध के साथ विकल्प भी प्रस्तुत किया जाता है। तभी सकारात्मक एवं सृजनात्मक नतीजे मिलते है। पत्र में यह स्पष्ट नहीं है कि सेकुलरिज्म किस प्रकार खतरे में है। क्यों नहीं, सीएम केरल स्पष्ट बताए कि वो किस सेकुलरिज्म का समर्थन करते है। इसके लिए भारतीय संविधान सभा की डिबेट्स का सहारा लिया जा सकता है। प्रो. के. टी. शाह भी भारत के संविधान के अनुच्छेद 01 में सेकुलर शब्द को जुड़वाना चाहते थे, परन्तु भारतीय संविधान सभा को सेकुलर शब्द के खुराफाती, शरारती प्रयोग को भलीभांति समझते थे। इसलिए संविधान सभा ने सेकुलर शब्द को भारत के संविधान के अनुच्छेद 01 में जोड़ने के प्रस्ताव को अस्वीकार किया।
आज सीएम केरल के पत्र को पढ़ कर संविधान सभा के निर्णय को समझा जा सकता है। संविधान सभा की दूरदृष्टि एवं गंभीरता को समझने की आवश्यकता है। सेकुलर शब्द के दुरूपयोग की संभावना अनन्त है। इसी संविधान सभी ने प्रारूप संविधान के अनुच्छेद 49 (वर्तमान के अनुच्छेद 60) में भारत के राष्ट्रपति द्वारा शपथ में ईश्वर शब्द को जुड़वाया। यह बहस भारत में सेकुलरिज्म को समझने के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।
एनपीआर का विरोध करने के पीछे किसी भी प्रकार का न तो तर्क दिया गया है और न ही तथ्य बताए गए है। तथ्य नहीं बताने के भी कुछ कारण है। चूंकि तथ्य बताने पर देश के सामने यह बात आती है कि एनपीआर जैसी योजना की आवश्यकता कारगिल युद्ध के दौरान समीक्षा बैठक में आई थी। इसके बाद 26/11 मुम्बई हमले के दौरान भी राष्ट्रीय पहचान पत्र के लिए आवश्यकता बताई गई थी। इसी बीच आधार योजना को लागू किया गया। उल्लेखनीय है कि
2003 में नागरिकता नियम को संसद के माध्यम से देश में लाया गया। 2003 के लिए पूर्णतया लोकतांत्रिक तरीके से संसद में पारित हुए और नागरिकों का रजिस्ट्रीकरण और राष्ट्रीय पहचान पत्रों को जारी किए जाने पर संसद ने पूर्ण सहमति जताई। 2003 के नियम के अंतर्गत 2010 में एनपीआर योजना को लागू किया गया। 2010 में किसी प्रकार का कोई भी विरोध किसी भी राजनैतिक दल द्वारा दर्ज नहीं कराया गया। एनपीआर 2020 की मार्गदर्शिका सबको उपलब्ध है। लोकतंत्र में यह अपेक्षा है कि विरोध करते समय एनपीआर 2020 के असहमति वाले बिन्दुओं को देश के सामने लावें। मुख्यमंत्री केरल देश के सामने विकल्प रखे जिससे कि राष्ट्रीय सुरक्षा एवं राष्ट्रीय हित में सही तकनीक, कानून एवं नीति का इस्तेमाल किया जा सके। संविधान सभा में भी प्रारूप संविधान की बहस के समय 7653 संशोधन प्रस्ताव आये थे और 2473 पर सभा में चर्चा हुई थी।
एनआरसी भी
2003 के नियम-नागरिकों का रजिस्ट्रीकरण एवं राष्ट्रीय पहचान पत्रों का जारी किया जाना के अंतर्गत आता है। एनआरसी भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए अत्यन्त आवश्यक है। किसी भी राष्ट्र में वहां रहने वाले लोग व नागरिकों की स्पष्ट जानकारी सरकार के पास रहनी चाहिए। इसमें कुछ भी असंगत मांग नहीं है। भारत में पहला एनआरसी वर्ष 1951 की जनगणना के अनुसार किया गया था। विज्ञान एवं तकनीकी के कारण आज बायोमेट्रिक या अन्य तकनीक को आधार बनाकर नये तरीके से नई तकनीक व नई सोच के साथ एनआरसी लागू करने में कोई संकोच नहीं हो सकता। किस प्रकार एनआरसी भारत विरोधी है, इस पर भी मुख्यमंत्री केरल ने कोई तर्क नहीं दिया है।
नागरिकता कानून
2019 में केवल पाकिस्तान, बांग्लादेश व अफगानिस्तान में रह रहे हिन्दु, सिख, जैन, बौद्ध, पारसी व ईसाई को भारत की नागरिकता देने में कुछ शिथिलन दी गई है। 2019 के संशोधन में भारत में रह रहे नागरिकों से सम्बन्धित कुछ भी नहीं है। क्यों नहीं सीएम केरल स्पष्ट बताते कि किस प्रकार नागरिकता कानून 2019 भारत के लोगों को प्रभावित करता है। नहीं बताने का कारण यह है कि नागरिकता कानून 2019 पूर्णतया सांविधानिक है।
एक पत्र लिखकर सांविधानिक पद पर बैठे मुख्यमंत्री देश में अराजकता का माहौल बनावें और भारत के नागरिक खामोश बैठकर तमाशा देखें। ये नहीं हो सकता। सीएम केरला बहस करें तो विकल्प भी देवें, विरोध करें तो तर्क देवें, सीएम केरला को जब मालूम है कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय में नागरिकता 2019 कानून का रिट लम्बित है तो इस पत्र के माध्यम से देश को क्या संदेश देना चाहते है। क्या सर्वोच्च न्यायालय में केरला सीएम को विश्वास नहीं है या फिर सीएम केरला स्वयं को संसद व न्यायालय से भी ऊपर समझते है। सीएम केरला सांविधानिक नैतिकता के उल्लघंन का पत्र भविष्य में पढ़ा जाएगा। सीएम केरला के व्यवहार एवं पत्र के संदर्भ में माननीय सर्वोच्च न्यायालय में हाल ही में दायर याचिका का स्मरण आता है, जहां याचिकाकर्ता चितरंजन कुमार ने सर्वोच्च न्यायालय से प्रार्थना की थी कि संविधान की जानकारी सभी सांविधानिक पदों पर आसीन व्यक्तियों के लिए अनिवार्य होनी चाहिए, परन्तु इस लोकहित याचिका को अस्वीकार कर दिया कि संविधान की मौलिक जानकारी तो सभी को होती है विशेषकर विधायिका को तो होती ही है।
विरोध व असहमति तभी लोकतांत्रिक है जब उसमें विकल्प के साथ तर्क भी शामिल हो।
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