अरावली के लिए न्याय
अरावली के लिए न्याय
हाल ही में अरावली पर सुप्रीम कोर्ट का आदेश चुनिंदा व्याख्या का शिकार हो गया है। सुप्रीम
कोर्ट ने 20 नवंबर 2025 के
आदेश के तहत सात निर्देश जारी किए हैं। पहला निर्देश अरावली पहाड़ियों और पर्वत
श्रृंखलाओं की एक समान परिभाषा से संबंधित है, जैसा
कि सुप्रीम कोर्ट के 9 मई 2024 के
आदेश के बाद गठित एक समिति द्वारा प्रस्तुत किया गया था( अरावली पहाड़ियां: ऐसी कोई भी जमीन जिसकी
ऊंचाई स्थानीय भू-भाग (जमीन) से 100
मीटर या उससे अधिक हो,अरावली रेंज (पर्वतमाला): यदि दो या उससे अधिक
ऐसी पहाड़ियां 500 मीटर के दायरे में हैं, तो उन्हें एक ही पहाड़ियों का समूह माना जाएगा)l दूसरा
समिति की रिपोर्ट के अनुसार खनन पर रोक से संबंधित है। तीसरा अरावली
पहाड़ियों और पर्वत श्रृंखलाओं में अवैध खनन को रोकने के लिए उठाए जाने वाले कदमों
से संबंधित है। चौथा निर्देश सस्टेनेबल
माइनिंग के लिए प्रबंधन योजना (MPSM) के
बारे में बात करता है। दिलचस्प बात यह है कि सरंडा वन्यजीव अभयारण्य के लिए आदेश
दिनांक 13 नवम्बर 2025 द्वारा MPSM के
निर्देश दिए हैं । किसी भी प्रकार की
अस्पष्टता से बचने के लिए,
MPSM के दायरे को
अदालत द्वारा परिभाषित किया गया है जैसे MPSM को अरावली परिदृश्य के भीतर खनन के लिए अनुमेय
क्षेत्रों, पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील, संरक्षण-महत्वपूर्ण और बहाली प्राथमिकता वाले
क्षेत्रों की पहचान करनी चाहिए जहां खनन पर सख्ती से प्रतिबंध लगाया जाएगा या केवल
असाधारण और वैज्ञानिक रूप से उचित परिस्थितियों में ही अनुमति दी जाएगी। MPSM में संचयी पर्यावरणीय प्रभावों और क्षेत्र की
पारिस्थितिक वहन क्षमता का गहन विश्लेषण शामिल होगा और इसमें खनन के बाद बहाली और
पुनर्वास के विस्तृत उपाय शामिल होंगे। पांचवां निर्देश, जो फैसले के महत्वपूर्ण परिचालन भाग को
रेखांकित करता है, MPSM को अंतिम रूप दिए जाने तक नए खनन पट्टों पर
पूर्ण प्रतिबंध है। छठा निर्देश, स्पष्ट
रूप से कहता है कि पर्यावरण, वन
और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा भारतीय वानिकी अनुसंधान और शिक्षा परिषद( ICFRE) के परामर्श से MPSM को अंतिम रूप दिए जाने के बाद खनन केवल वहीं अनुमेय होगा जहां
स्थिरता मानकों को पूरा किया जाता है। अंतिम निर्देश मौजूदा खनन गतिविधियों से
संबंधित है जिन्हें विशेष समिति की रिपोर्ट की सिफारिश के अनुसार अनुमति दी जाएगी।
पर्यावरण कार्यकर्ताओं की चिंता यह है कि अरावली पहाड़ियों और पर्वत
श्रृंखलाओं की नई परिभाषा से राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली, NCR और उत्तरी भारत के प्रभावित इलाकों में जंगल कटाई और रेगिस्तान बढ़ने
लगेगा। सुप्रीम कोर्ट के सामने कोई कानूनी सवाल नहीं था जिस पर फैसला किया जाए।
कोर्ट के पास फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया और कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर दो ऑप्शन
थे। कमेटी ने अरावली पहाड़ियों और पर्वत श्रृंखलाओं की ऊंचाई तय करने के लिए
रिचर्ड मर्फी लैंडफॉर्म क्लासिफिकेशन को अपनाया। जबकि फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया (FSI) की 19
फरवरी 2010 को सबमिट की गई रिपोर्ट में, अन्य बातों के अलावा, अरावली पहाड़ियों और पर्वत श्रृंखलाओं की ऊंचाई
तय करने के लिए तीन डिग्री से ज़्यादा ढलान को शामिल किया गया है।
एमिकस क्यूरी ने FSI रिपोर्ट
का समर्थन किया। जबकि भारत सरकार के एडिशनल सॉलिसिटर जनरल ने इस आधार पर FSI रिपोर्ट का विरोध किया कि अरावली पहाड़ियों और
श्रृंखलाओं से एक बड़ा क्षेत्र बाहर रखा गया है। दूसरी ओर, यदि समिति की रिपोर्ट को मंजूरी मिल जाती है, तो अरावली पहाड़ियों और श्रृंखलाओं की परिभाषा
में बड़ा क्षेत्र शामिल हो जाएगा।
सुप्रीम कोर्ट ने समिति के काम की सराहना की, लेकिन कहा कि MPSM को सारंडा की तर्ज पर किया जाना चाहिए। रिट याचिका, एक निरंतर परमादेश होने के कारण, सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियमित निगरानी में है। 20 नवंबर 2025 का
आदेश एक ऐसा आदेश है जिसमें भविष्य में, यदि
आवश्यकता पड़ी तो, संशोधन किया जा सकता है। पर्यावरण से संबंधित
सभी मुदों को पब्लिक ट्रस्ट सिद्धांत के
अनुसार निपटाया जाता है।सिर्फ़ MPSM पूरा
होने पर ही FSI पैरामीटर द्वारा किए गए दावों की असलियत और
एक्सपर्ट कमेटी द्वारा सुझाए गए परिभाषा के असर का पता चलेगा। अरावली पहाड़ियों और
पर्वत श्रृंखलाओं की ऊंचाई की कौन सी परिभाषा अरावली की रक्षा करेगी, यह सिर्फ़ डेटा और आँकड़े ही बताएँगे, जिसका आकलन सर्वे और मैपिंग के बाद ही किया जा
सकता है। इसके बाद कोर्ट फैसला करेगा और अरावली को न्याय देगा। जो भी हो, MPSM पूरा होने तक खनन पूरी तरह से प्रतिबंधित
है। चल रही बहस ने अवैध माइनिंग को रोकने
का काम सौंपे गए एनफोर्समेंट एजेंसियों की नाकामी के मुद्दे को छिपा दिया है।
कानूनी न्यायशास्त्र का मूल
सिद्धांत कि न्याय न केवल किया जाना चाहिए बल्कि होता हुआ दिखना भी चाहिए, निर्णय में गायब है। अरावली मामले के लिए यह
कानूनी दृष्टिकोण हितधारकों में विश्वास पैदा करता । साथ ही, सेवानिवृत्त न्यायाधीशों द्वारा फैसले सुनाए
जाने के बाद टिप्पणी करने की बढ़ती प्रवृत्ति के लिए न्यायिक संयम की आवश्यकता है जैसे कि अरावली मामले और अयोध्या मामले में देखा गया है । यह एक स्थापित
सिद्धांत है कि फैसले के लेखक को फैसला सुनाए जाने के बाद अदृश्य हो जाना चाहिए।
श्रृंखलाओं की ऊंचाई की परिभाषा तय करने का काम एक्सपर्ट कमेटी का है, लेकिन अरावली मामले में कोर्ट द्वारा अप्रूवल
की प्रक्रिया ने फैसले को विधायिका की भूमिका में खड़ा कर दिया l
शक्तियों का पृथक्करण और
न्यायिक समीक्षा भारत के संविधान के मूल संरचना सिद्धांत का हिस्सा हैं। अरावली पहाड़ियों और पर्वत श्रृंखलाओं की ऊंचाई की परिभाषा और
मापदंडों के खिलाफ विरोध का मतलब है न्यायपालिका संस्था पर ही विश्वास खो देना।
आखिर में, जनहित याचिका के फैसले के लिए विस्तृत आदेश का
ड्राफ्टिंग ज़रूरी है। आदेश की बेहतर ड्राफ्टिंग से मौजूदा सामाजिक अशांति, पैदा किया गया प्रायोजित भ्रम और बेबुनियाद आरोपों से बचा जा सकता था।
सूर्य
प्रताप
सिंह
राजावत
अधिवक्ता
राजस्थान
उच्च
न्यायालय जयपुर
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