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Showing posts from September, 2020

नई शिक्षा नीति 2020 - माध्यमिक शिक्षा

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  नई शिक्षा नीति 2020 - माध्यमिक शिक्षा । नयी  शिक्षा नीति  ने शिक्षा को  चार भागों में बांटा है- पहला फाउंडेशन, दूसरा  प्रिप्रेटरी  तीसरा मिडिल और फिर सेकेंडरी। वैसे तो सभी चरण शिक्षा के लिए बड़े महत्वपूर्ण हैं परंतु माध्यमिक शिक्षा इसलिए महत्वपूर्ण हो जाती है  क्योंकि माध्यमिक से पूर्व तो एक तरह की तैयारी होती है।  माध्यमिक के बाद माध्यमिक एक नींव  की तरह काम करती है. जिसके ऊपर आगे की मंजिल तैयार होती है. इसलिए माध्यमिक का बड़ा महत्व है। विद्यालय  शिक्षा के बारे में नई शिक्षा नीति में जब हम पढ़ते हैं तो उसमें कुछ विशेषण हैं जो कि अपेक्षित हैं - सर्वांगीणता, समग्रता, आनंदमयी  खोजमयी , इक्विटेबल और इंक्लूसिव। माध्यमिक शिक्षा में अपेक्षा है कि कुल  मूलभूत बातें हमारी शिक्षा पाठ्यक्रम में निहित हो जिससे कि भारतीय संस्कृति ,सभ्यता और उसकी  इतिहास के बारे में हर विद्यार्थी खोजी  बने।  परंतु उस खोज की बुनियाद माध्यमिक शिक्षा में ही तैयार हो जाए- जैसे कि तिरंगे के बारे में जानकारी केसरिया रंग स्पष्ट रूप से बताएं जाए ...

भारत की संसार को भेंट- स्वामी विवेकानंद

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(बरूकलीन मानक संगठन,  फरवरी 27, 1895) हिन्दु भिक्षु स्वामी विवेकानंद, ने  बरूकलीन एथिकल एसोसिएशन के तत्वावधान में सोमवार की रात को विशाल जनसमूह के सामने 'लोंग आइलैंड हिस्टोरिकल सोसायटी के हाल में एक भाषण दिया । इस भाषण का विषय था," भारत की संसार को भेंट "। उन्होंने अपने देश की आश्चर्यजनक सुन्दरता का वर्णन किया । उन्होंने कहा यह वह जगह है जहाँ से नैतिकता, कला, विज्ञान एवं साहित्य की प्रारंभिक शुरूवात हुई। कई महान यात्रियों ने भारत धरती के पुत्रों की ईमानदारी और पुत्रियों के गुणों की प्रशंसा में गीत गाये हैं । तब उन्होंने शीघ्र ही विस्तार से यह बतलाया कि भारत ने विश्व को क्या दिया  । धर्म के उपर बोलते हुए उन्होंने कहा कि ईसाई धर्म के मूल में जायें तो उसकी मूल शिक्षा की भावना भगवान् बुध की शिक्षा में मिलती है । उन्होंने एसे कई उदाहरण बतलाये जो कि योरोपियन और अमेरिकी वैज्ञानिकों ने कहे थे और उनमें ईसाई धर्म और भगवान् बुध की शिक्षा में समानता पाई गयी। ईसा मसीह का जन्म,  उनका संसार से अलग रहना,  उनके शिष्य और उनकी नैतिकता की शिक्षा वैसी ही हैं,  जैसी कि भगवान् बु...

संविधान सभा का राजभाषा हिन्दी पर निर्णय

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भारत में एक राष्ट्रभाषा का चिंतन सन् 1874 में आधुनिक भारत के सुधारक केशव चंद्र सेन की पत्रिका ‘‘सुलभ समाचार’’ में मिलता है। राष्ट्रभाषा के बारे में उपन्यास ‘‘आनन्द मठ’’ के लेखक बंकिम चंन्द्र द्वारा विस्तार से लिखा गया है। इसी क्रम में सन् 1906 में बंदेमातरम् पत्रिका में क्रांतिकारी श्रीअरविन्द के लेखो में आध्यात्मिक राष्ट्रवाद एवं विभन्न भाषा, जाती, पंथ के बावजूद भी राष्ट्रीयता की भावना कैसी बनी रहती है इसका वर्णन मिलता है। श्रीअरविन्द लिखते है कि राष्ट्र के लिए एक राजभाषा राष्ट्र के एकीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। हिंदी के उन्नति व प्रचार-प्रसारण के लिए नागरी प्रचारिणी सभा (सन् 1893) और हिंदी साहित्य सम्मेलन (सन् 1910) की अहम भूमिका रही। हिन्दी साहित्य सम्मेलन स्वतंत्रता आंदोलन के समान ही भाषा आंदोलन का साक्षी रहा है। पुरूषोत्तम दास टंडन को ‘सम्मेलन के प्राण’ के नाम से अभिहित किया। गांधी जी भी इस सम्मेलन से जुड़े और सन् 1917 में इंदौर की अध्यक्षता की। दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा का गठन सन् 1918 में महात्मा गांधी द्वारा किया गया। इसका उद्देश्य था दक्षिण भारत में हिन्दी प्र...